(सन्दर्भ-पाखण्ड से इतर लोक का विचार-डॉ.अनुज लुगुन-प्रभात
खबर-05-10-2018)
नगर परिषद द्वारा “जिउतिया लोकोत्सव” आयोजन को लेकर पहले
संशय पैदा करने, फिर उसे खारिज करने और फिर जन दबाव में एकाधिक पार्षद
प्रतिनिधियों द्वारा अगले वर्ष आयोजन करने का भरोसा देने, कलाकारों द्वारा आन्दोलन
किये जाने जैसे अवांक्षित मुद्दों की गरमाहट के बीच दाउदनगर जिउतिया लोकोत्सव संपन्न
हो गया। अपने पीछे कई सवाल छोड़ गया। सवाल
से अधिक यह कहना उचित जान पड़ता है कि-चिंताएं छोड़ गया। चिंता
इस बात की कि क्या नगर परिषद “जिउतिया लोकोत्सव” का आयोजन नहीं करेगा? जिसका आगाज
2016 में “श्रमण संस्कृति का वाहक-दाउदनगर” के लेखक उपेंद्र कश्यप की पहल पर हुआ
था। विरोध तो तब भी हुआ था। 23 में 08 वार्ड पार्षद खिलाफ में थे। इस
बार टिप्पणी आयी कि-अमुक खरीदारी में घोटाले का आरोप था, इससे ध्यान हटाने के लिए
आयोजन किया गया था। इस तर्क पर देखें तो फिर विकास का कोई कार्य नहीं होना चाहिए, क्योंकि घोटाला
तो नेहरू के जमाने में जीप खरीद से ही शुरू हो गया था। तब से अभी तक हर कार्य में कमीशनखोरी, और हर संवैधानिक संस्था में “सरकार” गठन
के लिए खरीद-फरोक्त होना चर्चा में रहता है। तो
क्या अब हाथ-पर हाथ धर कर बैठ जाया जाए। जो हमारे से संतुष्ट नहीं हैं, वे भला हमारे काम से कैसे
संतुष्ट हो सकते हैं? वे हमारा भला क्यों चाहेंगे? समाज के भले के लिए ‘सब’ नहीं ‘कुछ’
लोग ही दर्द ले सकते हैं, दर्द लेते हैं, और ऐसे ही लोगों से काम चलता है।
विरोध करने के लिए विरोध करने वाले, श्रीमानों !
सोच के संकीर्ण दायरे से बाहर निकलिए। हाँ, ऐसा करना सहज नहीं होता, क्योंकि पूर्वाग्रह, दुराग्रह आदमी को इस कदर जकड़
लेता है कि उसे पता ही नहीं चलता कि वह किसका और क्यों विरोध कर रहा है? उसके
विरोध का अंजाम क्या होगा, किसे कितना नुकसान होगा, यह दिखता ही नहीं है। व्यक्ति को लक्ष्य करने के परिणाम स्वरूप समाज-संस्कृति-सभ्यता को क्षति
पहुँचती है। खैर, उम्मीद की जानी चाहिए कि अगले वर्ष फिर से नगर परिषद “जिउतिया लोकोत्सव”
का आयोजन करेगा। विरोधी शहर की संस्कृति के आगे नतमस्तक होंगे।
खैर...
जिउतिया जाते-जाते एक सुखद इतिहास लिख गया। प्रभात खबर के संपादकीय पन्ने पर डॉ.अनुज लुगुन ने “पाखण्ड
से इतर लोक का विचार” शीर्षक से अग्रलेख लिखा है। वे 02
अक्टूबर को दाउदनगर गए थे। मुझसे मेरी किताब ली, और कई विषयों पर संक्षिप्त चर्चा की थी। यह सकारात्मक आलेख है, जिसमें शहर का नाम आया है, अन्यथा किसी शहर का नाम इस
तरह के लिखे में तो नकारात्मक कारणों से ही प्राय: आता है। लेकिन
इससे गौरव का बोध उन्हीं को होगा, जो सकारात्मक सोच रखते हैं, अन्यथा कुछ जलेंगे,
कुछ झेपेंगे, कुछ भीतर-भीतर विरोध करगें। गाना गुनगुना लीजिये- कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है
कहना।
विरोध करने वाले, जिउतिया को खारिज करने वाले और जिउतिया को
वंचित, शोषित, दलित समाज का बता कर खारिज करने की कोशिश करने वालों अनुज लुगुन को
पढ़ लो। पूरा नहीं पढ़ सकते तो यहाँ कुछ ख़ास दे रहा हूँ, शायद आँखों की पट्टी खुल जाए
अगर वास्तव में थोड़ा सा भी शहर से प्यार है, शहर की अपनी संस्कृति पर गर्व है, तो
पढ़ने से गौरव का बोध होगा, अन्यथा तो जिसने आँख बंद कर ली है, उससे कुछ नहीं कहना:-
अनुज लुगुन के आलेख :
पाखण्ड से
इतर लोक का विचार
: से कुछ पंक्तियाँ:-
इस माह में मगध अंचल में मनाया जानेवाला एक
त्योहार है ‘जिउतिया’. इस अंचल के दाउदनगर का जिउतिया सबसे ज्यादा लोकप्रिय है.
वहां इस अवसर पर लगभग सप्ताह भर से स्वांग, नकल, अभिनय
और झांकियां प्रस्तुत की जाती हैं. लोक कलाकार हैरतअंगेज करतब दिखाते हैं. आमतौर
पर हिंदी पट्टी में स्त्रियों की सार्वजनिक भागीदारी बहुत कम दिखती है. यहां तक कि
प्रगतिशील संगठनों के कार्यक्रमों में भी. यह हिंदी पट्टी का सामंती और
पितृसत्तात्मक लक्षण है. लेकिन, दाउदनगर के जिउतिया त्योहार
में स्त्रियों की बराबर की उपस्थिति ने इस पर पुनः विचार करने को विवश किया है.
त्योहार के कार्यक्रम की व्यवस्था आपसी सहयोग-सद्भाव के साथ सभी स्थानीय समुदायों
के लोग मिल-जुलकर करते हैं.
लगभग डेढ़ सौ वर्षों से चले आ रहे, कई दिनों तक रातभर चलनेवाले कार्यक्रम में लाल देवता और काला
देवता नामक प्रहरी के जिम्मे सुरक्षा का भार होता है और दोनों उसी भेष में घूम-घूम
निगरानी करते हैं. ये प्रतीक पुलिस-प्रशासन की बजाय स्थानीय समुदाय की शांतिपूर्ण
और सौहार्दपूर्ण व्यवस्था के हैं. यह सामुदायिक भागीदारी के द्वारा सुरक्षा का
उदाहरण है. पुरोहितवाद और कर्मकांड के पाखंड से इतर यह त्योहार
अपने अंदर लोक जीवन और कलाओं का समागम तो है ही, यह अपनी भंगिमाओं में लोक का वैचारिक प्रतिनिधि भी है.
आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का मानना रहा है कि संस्कृति और साहित्य के अंदर
जो द्वंद्व दिखायी देता है, वह मूलतः लोक और शास्त्र का द्वंद्व होता है. लोक श्रमिक समाज
की दुनिया है, जबकि शास्त्र पोथियों की दुनिया है. लोक चिंता
और शास्त्र चिंता के बीच हमेशा टकराव चलता रहता है. उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा
कि एक समय में ब्राह्मण धर्म को अवर्ण धर्म ने पराजित किया. यह लोक का पक्ष था. आगे
चलकर लोक का नया दर्शन ही बना- तंत्र. यह साधनामूलक था, जिसने
शूद्र और वंचितों को अधिक स्वतंत्रता दिया और उसकी मान्यताओं ने शास्त्र को चुनौती
दी.
लोक अपने तमाम अंतर्विरोधों के बावजूद सहज और लचीला होता है. वह समन्वय की
ताकत रखता है, जबकि शास्त्र ‘श्रेष्ठता बोध’ और ‘चयन’ के विचार से चालित
होता है. वह अपने ढांचे के अनुकूल ‘करेक्शन’ करता है, अनुशासन
गढ़ता है और संस्थाओं के माध्यम से अपना ‘वर्चस्व’ कायम करता है. इन्हीं अर्थों में लोक का विचार बहुलतावादी है, और
शास्त्र वर्चस्वकारी. शास्त्र विचार को एक रंग और एकरूपता देने की कोशिश करता है.
बहुलता उसके लिए चुनौती है. इसलिए देखा गया है कि शास्त्र-सम्मत धर्म अपना दूसरा
कोई प्रतिरूप नहीं चाहते हैं. शास्त्र के पंडित और पुरोहित अपना वर्चस्व बनाते
हैं. वे नहीं चाहते कि उनकी सत्ता उनके हाथ से छूटे.
लोक और शास्त्र के टकराव और दोनों के आपसी
लेन-देन को समझे बिना संस्कृतियों का अध्ययन नहीं किया जा सकता है. भारतीय लोक की
बहुलता को समझने की कोशिश होनी चाहिए. स्वाधीनता संघर्ष के दौरान और उसके कुछ समय
बाद हुए कुछ प्रयासों को छोड़कर हमारा अध्ययन लोक की दिशा में नहीं हुआ. हम कथित
आधुनिकता के दबाव में औपनिवेशिक मानसिकता के नियंत्रण में रहे और मध्यवर्गीय
आकांक्षाओं में उलझकर लोक को उपेक्षित करते रहे.
इसलिए देवेंद्र सत्यार्थी जैसे महान लोक अध्येताओं के द्वारा प्रस्तावित लोक
संस्कृतियों के जरिये भारतीय बहुलता को समझने की दिशा में हम अग्रसर नहीं हुए. लोक
का स्वभाव ही है सामूहिकता और सहभागिता. बिना इसके न तो सामाजिकता संभव है और न ही
सामाजिक सुरक्षा. लोक अपने समय की सत्ता के विरुद्ध प्रतिरोध भी गढ़ता है. यह
प्रतिरोध समाज के वंचित-उत्पीड़ित समुदायों की कथाओं, गाथाओं और गीतों में सहज ही
देखा जा सकता है.
पूंजीवादी युग में शास्त्र पूंजी के साथ गठजोड़ भी
करता है. इस तरह लोक पर केवल शास्त्र का हस्तक्षेप नहीं होता, बल्कि पूंजी भी उस पर हमला करती है.
देश में जिउतिया की तरह अनगिनत लोक त्योहार
मनाये जाते हैं. आदिवासी लोक तो विलक्षण लोक है. इन त्योहारों में ही हम असल
भारतीयता को देख सकते हैं. इनमें आंतरिक अंतर्विरोध
जरूर होंगे, लेकिन यहां आपसी सद्भाव है. यह श्रमिक समुदायों
का उत्सव है. ऐसे दौर में जब हम सांप्रदायिकता के चंगुल में फंसते जा रहे हैं,
लोक के उत्सव, राग और संघर्ष से जुड़कर,
उससे बहस और संवाद करते हुए ही हम नये जनवादी समाज का निर्माण कर
सकते हैं.