धर्मवीर भारती |
आजादी से पहले कई अंगे्रज यात्रियों ने औरंगाबाद जिला (तात्कालिन गया जिला) की यात्रा की। जिसमें कनिघंम, विलियम डेनियल, फ्रांसिस बुकानन, हैमिल्टन का नाम महत्वपूर्ण है।
फ्रांसिस बुकानन एक चिकित्सक थे। बंगाल चिकित्सा कोलकाता में उन्होंने चिड़ियाघर की स्थापना की। जो कलकत्ता (अब-कोलकाता) अलिपुर चिड़ियाघर के नाम से मशहुर है। बुकानन ने भारत में दो सर्वे किए। पहली बार 1800 ई. में मैसुर का एवं 1807 ई. से 1814 ई. तक बंगाल का ।
फ्रांसिस बुकानन और उनकी दाउदनगर यात्रा का नक्शा |
ॅ06 फरवरी 1812 को फ्रांसीस बुकानन बैलगाड़ी के माध्यम से गोह होते हुए देवहरा पहूंचे। रास्ते में देखा की महिलाएं लाल घाघरे में है और बैद्यनाथ की तरफ पुरूषों के साथ कांवर लेकर जा रही है। साथ में जोर-जोर से नारा लगा रही हंै। बैद्यनाथ की तरफ आने-जाने वाले रास्ते में काफी मंदिर, मुर्तियां एवं उनके अवशेष बिखरे पडे़ है। उन्होंने देवहरा के बाद पूनपून नदी पार किया । पूनपून नदी के बारे में उन्होंने लिखा है कि उसकी चैड़ाई 100 यार्ड है और गया क्षेत्र के किसी भी पानी के स्त्रोत से ज्यादा पानी है। पूनपून नदी की बह रही धारा 30 यार्ड चैड़ी और 12 से 18 इंच गहरी एवं चैड़ी है। उसमें बह रहा जल अत्यंत निर्मल है।
दोपहर को वे पूनपून नदी के किनारे स्थित छिन्नमस्तिका माता मंदिर पहंूचे। मंदिर ध्वस्त की गई पूरानी मंदिर के ईटों से पूनः निर्मित है। वास्तुकला असाधारण है। मंदिर के अंदर छिन्नमस्तिका माता की मुर्ति है। वह एक लेटे हुए पुरूष के शरीर के उपर नृत्य कर रही हैं और प्रणय मुद्रा में है। माता खून की प्यासी हुै। उन्होंने अपना सिर स्वयं काटा है। उनके गर्दन से खुन की तीन धाराएं बह रही है। पहली धारा माता के कटे हुए मुख में दूसरी धारा हाथ में लिए हुए खप्पड़ में और तीसरी धारा जयकाल के मुख में। पास में ही गौरी शंकर की मुर्तियां है जो अमोद मुद्रा में है एक बैल की खुबसुरत प्रतिमाएं है जो तेल एवं सिंदुर से रंगी है। दो पुजारी बैठकर पुजा कर रहे हैं। मंदिर बहुत छोटा है इसके चारों ओर अनेकों शिवलिंग हंै और यहां सन्यासियों ने धूनी रमाई है।
07 फरवरी 1812 को वे देवहरा से 10 मील की दूरी पर छोटे-छोटे गांव से होते हुए दाउदनगर पहूंचे। बुकानन लिखते है कि सड़कंे बैलगाड़ी के चलने लायक थीं और रास्ते के दोनों तरफ कई मंदिर हैं।
दाउदनगर में विश्राम किया और अपनी डायरी में रास्ते के विवरण को लिखा। 08 फरवरी 1812 को दाउदनगर के निवासियों से मनोरा गांव की प्रसिद्धि के बारे में सूनी और चार कोस की दूरी तय कर पहूंच गए। देखा की मनोरा गांव ऊंचाई पर बसा है। गांव के पूर्व दिशा में पूराना मंदिर है, जो घुमावदार है। दीवार बहुत मोटी है। मंदिर की बनावट अन्य मंदिरों की तुलना मंे अलग है। मंदिर में पद्मासन लगाए बुद्ध की प्रतिमा है। हाथ घुटनों पर है। दोनों पैर के पास पुजारी ब्राह्मण है। जिनको पाठक से संबोधित किया जाता है। मनोरा गांव के बारे में सारी जानकारियां दी। उन्होंने बताया की बुद्धपूजन उनकी संस्कृति नहीं थी। बुकानन अपने जर्नल में लिखते है कि वह जमीदार ब्राह्मण मुझसे डर भी रहा था। उसे लगा रहा था की मैं यहां की जमीन पर कब्जा करने आया हूं। जमींदार ब्राह्मण मुझे कोल राजा के घर के खंडहर दिखाने को कहा जिसने इस बुद्ध मंदिर को बनवाया था। वह मुझे मंदिर से 200 यार्ड उत्तर की ओर ले गया जहां ईटों का खंडहर बिखरा पड़ा था । खंडहर लगभग 20 यार्ड वर्गाकार था। जिसकी सतह पर दो शिवलिंग स्थापित थे। पास में दो मुर्तियां थी। जिसमेें एक छोडे वासुदेव की मुर्ति स्थानीय लोग इसे महामा कहते है।
उसके बाद बुद्ध की बड़ी प्रतिमा को कलाकृति को निहारने लगा। मुर्तियां काफी सजी धजी थी। शिलालेख भी लिखा था। मनोरा से एक कास उत्तर की तरफ बोतारा ;इवनजंतंद्ध पहंूचा । स्थानीय लोगों ने बताया कि कोल राजा के खंडहर पड़े हैं। यह भी 20 यार्ड वर्गाकार एवं 20 फीट उंचा था। इसकी काफी सारी ईटें निकाली गई थी । मेरे अनुमान से यह पूजा का स्ािान रहा होगा, कारण खंडहर में देव गौरीशंकर की टुटी हुई प्रतिमाएं थी।
जिसे लोग सोका बोक्ता ;ेवांइवाजंद्ध कहते है। गांव के लोग इस खंहडर को चेरस कहते है। जो कोल राजाओं के राज्य के गवाह हैं। फिर मैं दाउदनगर वापस चला आया। 11 फरवरी 1812 को दाउदनगर से 3 कोस दूर पूर्व की ओर चला गया वहां पर एक गांव आया जिसका नाम ताल है। गांव काफी लंबा चैड़ा था दक्षिण की तरफ दलदल था । जिसे कोेल का निवास स्थान बताया जाता है। दीवारों की मिट्टियों से दलदल का निर्माण हो गया होगा। यहां की मिट्टियों में ईटों एवं वर्तन के अवशेष पाए गए लेकिन जांच से किसी बड़े किले या मंदिर नही थे।
दाउदनगर और हमीदगंज दो कस्बे हंै और दोनों के बीच में एक थाना भी है। हमीदनगर की गलियां सीधी एवं चैड़ी हंै लेकिन कुछ गलियां पतली एवं टेड़ी-मेढ़ी भी है। चैड़ी गलियां मुख्य मार्ग से निकलती हैं रास्ते में झोपड़ियां अधिक संख्या में है।
दाउदखान जिसके नाम से इस शहर का नाम रखा गया, ने एक संुदर किलाबंद सराया का निर्माण कराया । यह आयताकार है, ईट की दीवारों से निर्मित है। उसमें संुदर नक्काशी भी है। दाउद खां के वंशज सराय के जीर्ण-शीर्ण भाग में अपना आवास बनाकर रह रहे थे। बुकानन के दृष्टिकोण से यह गढ़़ रहा होगा लेकिन अंग्रेजी सरकार के नजर से बचाने के लिए इसका प्रयोग सराय के रूप में किया जा रहा था। दाउद खां केे बेटे ने भी एक सराय का निर्माण कराया जो हामीद के नाम से है। इसमें लंबी एवं चैड़ी गलियां है और दोनों तरफ गेट भी है। यहां पर छोटा भवन भी है जिसे स्थानीय लोग इमामबाड़ा कहते हैं । इसका रख-रखाव अच्छा है। गारे से निर्मित एक और भवन है। जिसे चैतेरा बोलते है। यह तीन मंजिला है, बढ़ते ऊंचाई में भवन शंकु के आकार का होते गया है। यह भवन घेरा रहित है और छत पंचाकृति में है। जो देखने में खास नहीं है । इसका आकार जयपुर के प्रसिद्ध भवन के जैसा मेल खाता है। इमामबाड़ी के पास दो नवाबों के स्मारक बने है। जो कि छोटे और अस्त-व्यस्त है। दाउदनगर में मकानों की संख्या गया शहर से कम है लेकिन यहां के निर्मित मकान देश के अन्य साधारण लोगों के घरो के मुकाबले ज्यादा आरामदायक है। मकान मिट्टी एवं खपड़े से निर्मित है।
12 फरवरी 1812 को दाउदनगर से 12 मील दूरी तय कर पहलेजा पहुंचा । बसंत ऋतु की पश्चिमी हवा के किनारे काफी हवा चल रही थी। कस्बे से चार मील दूर मैं शमशेर गंज (शमशेर नगर) पहुंचा । यहां बाजार एवं सराय है। जिसका निर्माण शमशेर खान ने करवाया था। बुकानन आगे लिखते है कि शमशेर खान को गांव के दक्षिण तरफ एक बगीचे में दफनाया गया था। यह बगीचा चारों तरफ से ईट से घेरा गया है।
शमशेर खान को स्थानीय लोग जबरदस्त खान के नाम से जानते थे। जिसका मतलब उसके हिंसक होने को दर्शाता है। शमशेर खान की शादी जोबन खान की बहन से हुई थी। फ्रांसीस बुकानन 12 फरवरी को ही अगनुर सराय अरवल विक्रमपुर मनेर होते हुए पटना की ओर प्रस्थान कर गए। दाउदनगर का इतिहास को खोजने में लिखने में कई लेखकों ने कलम चलाई जिसमें महत्पपूर्ण श्रेय युवा लेखक श्री उपेन्द्र कश्यप को जाता है। वे फ्रांसिस बुकानन हैंमेलटन के बाद दाउदनगर अनुमंडल के इतिहास को करीब 21 वर्षो से खोजने एवं जानने में लगे हैं। दाउदनगर के जिउतिया लोक उत्सव को आज तक उपेक्षित रखा गया है जो दुर्भाग्यपूर्ण है।