# शाहीनबाग #जामिया
#सीएए विरोध #धरना के खिलाफ धरना
भारतीय समाज में अब क्रिया की प्रतिक्रया का दौर शुरू हो गया है। इससे बहुतों को असुविधा हो रही है। जो कल तक प्रतिक्रया की कल्पना नहीं कर सकते थे, वे हतप्रभ हैं। उनको अब समझ नहीं आ रहा कि क्या करें? यह सब क्या है...
भारतीय समाज में समय-समय पर एक पंक्ति सुनने को मिलती
है-‘अति सर्वत्र वर्जयेत’ यह खूब प्रासंगिक लग रहा है अभी, और स्मरण आ रहा है
बिहार में जातीय नरसंहार के दौर के अंत का कारण। भारतीय समाज उसी दिशा में अब लगता है बढ़ चला है।
सांप्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता के संघर्ष में दिशा वैसी ही दिख रही है, जब
बिहार में जातीय नरसंहार का दौर था। सरकार कुछ नहीं कर पा रही थी। उसके नियंत्रण
से नक्सली संगठन और निजी सेना दोनों बाहर थे। अंतत: रणवीर सेना ने मियांपुर (16
जून 2000) में 33 लोगों की जघन्य तरीके से ह्त्या कर दी थी। यह नरसंहार सेनारी
के बदले में अंजाम दिया गया था। सेनारी एमसीसी ने तो रणवीर सेना ने मियांपुर को
अंजाम दिया। इसके बाद बिहार में कोइ नरसंहार नहीं हुआ। नरसंहार रोकने में बिहार
सरकार की कोइ भूमिका नहीं थी। कोइ श्रेय नहीं ले सकता। यह अति का अतिरेक से सामना
का परिणाम था। इसका जातीय विश्लेषण फिर कभी। फिलहाल, सांप्रदायिकता बनाम
धर्मनिरपेक्षता के मुद्दे पर ही केन्द्रित रहते हैं।
श्लोक है-
अति रूपेण वै सीता चातिगर्वेण रावणः।
अतिदानाद् बलिर्बद्धो ह्यति सर्वत्र वर्जयेत्।।
अर्थात-अत्यधिक सुन्दरता के कारण सीता हरण हुआ। अत्यंत घमंड के कारण रावण का अंत हुआ। अत्यधिक दान देने के कारण रजा बाली को बंधन में बंधना पड़ा। अतः सर्वत्र अति को त्यागना चाहिए। अति कभी भी अच्छी नहीं होती, फिर वह किसी भी कारण से हो।
अतिदानाद् बलिर्बद्धो ह्यति सर्वत्र वर्जयेत्।।
अर्थात-अत्यधिक सुन्दरता के कारण सीता हरण हुआ। अत्यंत घमंड के कारण रावण का अंत हुआ। अत्यधिक दान देने के कारण रजा बाली को बंधन में बंधना पड़ा। अतः सर्वत्र अति को त्यागना चाहिए। अति कभी भी अच्छी नहीं होती, फिर वह किसी भी कारण से हो।
क्या कांग्रेस ने मुस्लिम
तुष्टीकरण और हिन्दू विरोध की अति नहीं कर दी है? उसी के नेता एके एंटनी ने 2014
लोक सभा चुनाव के बाद अपनी पार्टी द्वारा हार नहीं, इतिहास के सबसे बड़ी बदतर हार
के लिए जिम्मेदार कारक को चिन्हित कर जो जांच रिपोर्ट दिया था, उसमें क्या था? यही
न कि भारतीय समाज कांग्रेस की कार्यशैली, नीति, विचार को मुस्लिम परस्त मानती है
और छवि हिन्दू विरोध की बन गयी है। फिर कांग्रेस क्यों नहीं चेत रही है? अति शायद यही
है। जवाहर लाल नेहरू की नीतियाँ मुस्लिम परस्त रही है। यह गलत है तो स्वयंभू
बुद्धिजीवी या कांग्रेसी क्यों नहीं एबीपी के कार्यक्रम ‘प्रधानमंत्री’ और फिर अभी
प्रसारित ‘प्रधानमंत्री-II’ के खिलाफ कोर्ट गए या जाते हैं। इस डॉक्युमेंट्री
धारावाहिक में तो साफ़-साफ यह दिखाया गया है कि नेहरू ने ही देश में मुस्लिम
तुष्टीकरण का बीजारोपण किया जो अब अतिरेक की हद तक पहुँच गया है। पहले वाले
कार्यक्रम के एक एपिसोड में साफ़ दिखाया-बताया गया है कि जब बंटवारे के वक्त दंगा
हुआ और मुस्लिम आरोपी पकडे गए तो नेहरू ने पटेल से कहा कि इतने ही हिन्दुओं की गिरफ्तारी कराइए नहीं तो मुस्लिमों का हम पर विश्वास नहीं होगा। हद है तुष्टीकरण की
राजनीति का। दूसरे कार्यक्रम के प्रथम एपीसोड में दिखाया गया कि अधिमिलन के वक्त
नेहरू की दिलचस्पी कश्मीर को भारत में मिलाने से अधिक अपने मित्र शेख अब्दुल्ला को
महाराजा हरी सिंह की कैद से बाहर निकाल कर सत्ताधीश बनाने में थी। समय पर सभी
महापुरुषों के योगदान की समीक्षा की जाती है, इसमें गलत क्या है? इसे नेहरू को
अपमानित करना बताना गलत है। कांग्रेस ने भी कई बार नैतिकताएं, मर्यादाएं तोड़ी हैं
और इसकी अब समीक्षा करने को गलत ठहराना गलत होगा। ठीक इसके उलट, नरेंद्र मोदी के कार्य की
समीक्षा भी होगी। हो रही है। और उनके फैसले में भी गलत-सही ढूंढा जाएगा, जिसे राष्ट्र के
अपमान से जोड़ना गलत है।
शाहीन बाग़ के संदर्भ में देखें
तो क्या सांप्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता की लड़ाई की अति का यह दौर है? 02 फरवरी
को शाहीन बाग़ में सीएए के खिलाफ धरना पर बैठे लोगों के खिलाफ स्थानीय लोग प्रदर्शन
पर उतर गए। धरना का 50 दिन
हो गया है। सवाल यह है कि अपनी मांग मनाने के लिए सड़क को बंधक बना लेना क्या उचित
है? पुलिस क्यों नहीं उन्हें हटा पा रही है, या हटाना नहीं चाहती? क्यों सरकार को
बात करनी चाहिए, या नहीं करनी चाहिए? क्या दिल्ली चुनाव की वजह से ही दोनों पक्ष
अपनी राजनीति सेंक रहे हैं? यदि भाजपा चुनावी राजनीति के कारण इनको नहीं हटाना
चाहती तो इनको हटने से रोक कौन रहा है? फिर स्वयंभू सेकुलर जमात ने समर्थन का ऐलान
क्यों किया? दोनों पक्ष राजनीति कर रहे हैं, और सवाल एक दूसरे के खिलाफ उठा रहे
हैं कि फलां शाहीन बाग़ पर राजनीति कर रहा है? जब रोजमर्रे के काम को लेकर लोग
परेशान होंगे तो क्या वे प्रतिक्रया देने से खुद को रोक सकेंगे? और यदि क्रिया के
विरुद्ध रोजमर्रे की समस्या से जमा गुस्सा या असंतोष प्रतिक्रया स्वरूप व्यक्त
होगा तो उसे ‘सामान्य’ कैसे बनाए रखा जा सकता है? प्रतिक्रया तो प्राय: तीखी ही होती
है। जामिया और शाहीन बाग़ में युवक द्वारा गोली चलाने की घटना को भी ऐसी ही
प्रतिक्रया माना जा सकता है।
यह संकेत है कि
देश में अराजक और कट्टर तत्व अब उठ खड़े होने लगे हैं। यह अतिरेक का जमाना हो चला है तो अतिरेक
से ही इसका खात्मा होगा। सरकारें अपना हित देखेंगी, चाहे सरकार किसी की हो। नेता
कोइ हो, वह तो अपना भला ही देखेगा। आज का यही कटु सत्य है। इसलिए जनता को ही आगे
आना होगा। लेकिन निजी बनाम नक्सली सेना की तर्ज पर प्रतिक्रया देने सामने आना
कितना उचित होगा? यह भी समय ही सही मूल्यांकन कर सकेगा। हम तो बस चर्चा कर सकते
हैं। कर रहे हैं। बाकी जो जिनको देश अपने अनुसार बनाने की चिंता है उनको अपने
अनुकूल करते हुए हम देख ही सकते हैं, फिलहाल। हालांकि समय उनका भी इतिहास लिखेगा,
जो तटस्थ खड़े हैं, मूकदर्शक बनकर।
बिल्कुल सही और प्रासंगिक आलेख है।
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