स्कूल संचालक ने दी जान मारने और बर्बाद करने की धमकी
आंचलिक पत्रकारिता हमेशा कठीन रही है, आगे भी नहीं बदलेगी
स्थिति
० उपेंद्र कश्यप ०
इंडिया टीवी से जुड़े और अपना
न्यू पोर्टल एमा टाइम्स चलाने वाले जिले के वरिष्ठ पत्रकार प्रियदर्शी श्रीवास्तव
को एक स्कूल संचालक ने धमकी दी है। जान से मारने और बोरिया-बिस्तर बांधने की धमकी,
वह भी जिलाधिकारी के स्टोनो कक्ष में, सात जनवरी 2020 को। उन्होंने एसपी को पत्र
लिखकर घटना का ब्योरा दिया है। बताया है कि उन्होंने 03 सितंबर को एक खबर चलाई थी।
बताया-दिखाया था कि, स्कूल के बच्चे कैसे स्कूल बस को धक्का भीषण गर्मी में दे रहे
हैं। संबंधित स्कूल को अपनी बुनियादी सुविधा पर ध्यान देते हुए दिखाई/ बतायी गयी समस्या
का अंत करना चाहिए था, ताकि घटना की पुनरावृति न हो और दूसरे स्कूल भी ऐसा करने को
प्रेरित हों। लेकिन ऐसा न कर उलटे अब पत्रकार को ही धमकी दे रहे हैं। अपनी दौलत और
संबंधों की धौंस दिखा रहे हैं। पीड़ित पत्रकार ने अपनी स्थिति बताते हुए मूल
अधिकारों की सुरक्षा एवं संरक्षा हेतू आवश्यक कदम उठाने की मांग की है। क्या
उम्मीद की जानी चाहिए कि औरंगाबाद एसपी गंभीरता से इसे संज्ञान में लेंगे?
प्रियदर्शी ने दो पेज का पत्र इस सन्दर्भ में मुख्य सचिव-बिहार सरकार, प्रधान सचिव
गृह विभाग, पुलिस महानिदेशक, अपर पुलिस महानिदेशक विशेष शाखा, पूर्व सांसद एवं पूर्व
राज्यपाल निखिल कुमार, सांसद महाबली सिंह, जिले के सभी विधायक, सभी राजनीतिक दल के
पदाधिकारी, जिले में कार्यरत सभी एनजीओ के अलावा सभी मीडिया हाउस को भेजा है। अब
इतने के बावजूद कोइ कारर्वाई नहीं होती है और पत्रकार को खतरा होता है तो हर आदमी
का व्यवस्था से भरोसा उठ जाना लाजिमी होगा। भरोसा बचाए रखने के लिए आवश्यक है
आरोपित के खिलाफ कारर्वाई हो। अन्यथा कोइ भी कल किसी भी पत्रकार को धमकी देने से
बजा नहीं आयेगा।
जिले में ही नहीं कहीं भी,
आंचलिक पत्रकारिता हमेशा कठीन रही है और आगे स्थिति बदल जायेगी, ऐसी अपेक्षा नहीं
की जा सकती। जिले में अखबार जलाने, पत्रकार को अपने अनुकूल बनाने के लिए दबाव
बनाने हेतू मुकदमों में फंसाने, प्रेस कौंसिल ऑफ़ इंडिया में मामला ले जाने की कोशिश
होते रही है। मुझ पर तो बजाप्ता भीड़ को उकसा कर हमला कराया गया था। आगे भी ऐसा होते
रहेगा। स्वयं मुझे, उपेंद्र कश्यप को जब दाउदनगर में दैनिक जागरण के रिपोर्टर थे,
ऐसी दुश्वारियां झेलने को मिली हैं। मुझे तो एक कोंग्रेसी नेता ने एक ही खबर को
लेकर अंगरेजी और हिन्दी दोनों में नोटिस भेजा था। मैंने उनसे तब कहा था, आपको
उर्दू जानने वाला अवकील भी रख लेना चाहिए और उर्दू में भी एक नोटिस भेजना चाहिए।
एक महाविद्यालय के सचिव ने बिना खबर का जिक्र किये ही, बिना उसका कतरन लगाए ही
वकालतन नोटिस भेजा था। उनकी उम्र देखकर उनसे खा कि क्या यह सब करते हैं? उन्होंने
कहा जब एक बार शिकायत कर दी तो वापस नहीं लेंगे। मैंने प्रत्युत्तर दिया-मैं जवाब
नहीं देता, और आपके नोटिस का भी जवाब नहीं दूंगा, जहां जाना है जाइए। आपकी उम्र
देखकर आपकी इज्जत किया तो आप ऐंठने लगे। वे शांत हो गए। बरमेश्वर मुखिया मियांपुर
नरसंहार (16 जून2001) से पूर्व दाउदनगर के इलाके में भ्रमण किये थे। उसके बाद
नरसंहार हुआ और प्रशासनिक-राजनीतिक सन्दर्भ में इस पर मैंने एक स्टोरी की थी। जिले
के तीन दिग्गज नेता मेरे खिलाफ खड़े हो गए। दो ने वकालतन नोटिस भेजा, एक तब गया
स्थित अखबार के ऑफिस में ही खंडन छपवाने बैठ गए, वे खंडन छपवाने में सफल रहे थे।
एक नेता जी सिर्फ इसलिए खिलाफ में थे कि उनको मेरी लेखनी में किसी और के शामिल
होने का संदेह था, जिसे वे पसंद नहीं करते थे। तब उन्होंने खबर को गलत नहीं बताया
था। बस पूछ रहे थे-फलां लिखा है कि आप? इतनी सटीक जानकारी किसने दी? एक व्यंग्य
लेख “बात-बे-बात” के लिए अखबार के ऑफिस से लेकर प्रेस कोंसिल ऑफ़ इंडिया तक खूब भाग
दौड़ की गयी थी। मुझे अखबार ने न हटाया न नोटिस दिया। इससे ताकत मिलती है। खुल कर
लिखने की प्रेरणा मिलती है। समाज का कल्याण होता है। खैर...
जब आप पत्रकारिता करेंगे तो
स्वाभाविक है न्यूज मेकर तबका आपकी शिकायत करेगा। वह चापलूसी पसंद होता है। नेता
और अधिकारी पत्रकार का इस्तेमाल करते हैं। अब एक नया वर्ग जुट गया है, जिसके बिना
मीडिया का वजूद संकट में रहता है। एक पत्रकार क्या करे? वह आर्थिक रूप से कमजोर ही
होता है। यह और बात है कि कोइ खानदानी पैसे वाला इस क्षेत्र में आ गया हो-नाम कमाने
की गरज में, या बाद में कोइ एक्का-दूका पत्रकार अमीर की श्रेणी में आ गया हो।
किन्तु सच यही है कि आंचलिक पत्रकारिता से 100 फीसदी पत्रकारों की दाल रोटी नहीं
चलती। दूसरा व्यवसाय जिसके पास है वह कुछ हद तक कम समझौते करता है, या करने को
मजबूर होता है। इसके बावजूद उसे धमकियों और धौंस से बराबर सामना करना पड़ता है। हद
यह कि जब किसी मुफस्सिल का पत्रकार संकट में होता है तो उसके पक्ष में उसका बराबर
इस्तेमाल करने वाला अधिकारी-नेता कोइ खड़ा नहीं होता है। जनता भी प्राय: मुंह फेर
लेती है, जिसके लिए एक पत्रकार हमेशा जूझता रहता है। ऐसे मामलों में भी साथ होने न
होने के पीछे जातिवाद प्रमुख कारक होता है।
शायद, इसीलिए किसी बड़े अज्ञात
पत्रकार ने कहा था-पत्रकारिता: ना बेटे कभी नहीं।
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