दाह
संस्कार भी करने के लिए पैसे नहीं| गरीबी क्या होती है जरा यहां देखिए| कबीर
अंत्येष्टि योजना की जानकारी से हैं अनभिज्ञ भुलेटन व भुइयां बिगहा का है यह हाल|
उपेंद्र
कश्यप
औरंगाबाद
का दो अनुठा गांव है। यहां हिन्दू बसते हैं। पूजा पाठ व हिन्दू धर्म संस्कृति में
लोगों को गहरी आस्था भी है। यहां की महिलाएं छठ व्रत भी करती हैं। लेकिन यहां के
लोग हिन्दू संस्कृति के अनुसार शव को जलाते नहीं हैं। नदी में जल प्रवाह भी नहीं
करते। यहां के लोग शव को दफनाते हैं। यह गांव हैं दाउदनगर अनुमंडल के दो समीपवर्ती
गांव संसा के भुलेटन बिगहा व मनार का भुइयां बिगहा। यहां सदियों से शव को दफनाने
की परम्परा चली आ रही है। इस गांव में नट, खलीफा व वैद्य जाति
के लोग रहते हैं।
०
कबीर अंत्येष्टि योजना की नहीं है जानकारी :
ग्रामीणों
को कबीर अंत्येष्टि योजना की जानकारी नहीं है। इस योजना का लाभ इन्हें आजतक नहीं
मिला। यह योजना क्या है इसके बारे में ये लोग जानते तक नहीं हैं। दोनों टोलों में
न आंगनबाड़ी केन्द्र है न ही विद्यालय। दोनों टोलों को मिलाकर पांच सौ की आबादी
यहां बसती है।
०
जलाने को लकड़ी कहां से लायें :
परिजनों
के शव को क्यों दफनाते हैं?
इस सवाल पर खैराती नट, पतालू नट, जुलुम नट, प्रवेश नट, मोहरमिया
देवी, मुंडी देवी, शकुर नट, इलायची देवी व तबीजनी देवी बताती हैं कि जो बाप दादा करते थे वही कर रहे
हैं दूसरा खाने के लिए तो भीख मांगते है, जलाने के लिए जो
लकड़ी चाहिए, वो कहां से लायें इसके लिए क्या बेचें। सरकारी
सहायता के बारे में इन लोगों को जानकारी नहीं है।
०
लाश गाड़े तो मजार बनाओ :
ग्रामीण
भोले हैं कुछ लोग धार्मिक कारणों से इन्हें समझाते हैं। कहतें हैं कि तुमलोग
हिन्दू नहीं हो कुछ ने मजार बनवा कर ऊदरू में उस पर नाम खुदवा दिये इससे इन्हें
कोई ऐतराज नहीं है। टुना नट बताते हैं कि कुछ लोग समझाये कि जब लाश गाडते हो तो
मजार तो बनाना पडेगा बस मजार बना दिया जाता हैं।
०
महाराणा के वंशज होने का गौरवबोध :
यहां
लोगों के पोशाक आदिवासी जैसे होते हैं महिलाएं घाघरा पहनती हैं पुरूष केवल लुंगी 80 वर्षीय वृद्ध रतिलाल राठौर (नट) ने बताया कि-साहेब हमलोग महाराणा प्रताप
के वंशज हैं हल्दी घाटी की लड़ाई से जो भागे तो आज भी रहने का स्थाई ठिकाना नसीब
नहीं हुआ।
०
कोई गंगा निकलनी चाहिए: गोपेन्द्र
इन
गरीबों के बीच पराया जा कर जागरूक करने का प्रयास कर रहे शिक्षक गोपेन्द्र कुमार
सिन्हा ने बताया कि आज तक इनके बीच से कोई बच्चा मैटिक तक की शिक्षा ग्रहण नहीं कर
पाता हैं इनकी आदत यथा खान पान रहन सहन बोली सब अलग है। इनकी जिंदगी खानाबदोशों से
मिलती जुलती है।गोपेंद्र कुमार सिन्हा
० गरीबी के कारण शव दफनाना बना परंपरा
परिजनों के शव दफनाने के लिए होने वाले खर्च का जुगाड़ करना यहां के
लोगों के लिए पहाड़ खोदने जैसा है। नतीजा इसका रास्ता ग्रामीणों ने शव जलाने के
बदले दफनाने की परंपरा शुरू कर दी। गरीबी का जीवन कितना मुश्किल होता है नेताओं
एवं अधिकारियों को यहां आकर देखना चाहिए।
No comments:
Post a Comment