आशीष कुमार अंशु के साथ संजीव चन्दन
बिहार के गया और औरंगाबाद के बीच औरंगाबाद के एक अनुमंडल, दाउदनगर, में
मुख्यतः पिछड़ी जाति ‘कसारे’ और ‘पटवा’ की अधिकतम आबादी है। यहाँ कभी घर –घर में
कांसे के बर्तन बनाने के लघु उद्योग थे, जो अब नष्ट हो गए हैं। लेकिन यह शहर आज भी
अपनी एक सांस्कृतिक पहचान के साथ अपनी मौजूदगी दर्ज कराता है - पिछड़ी जातियों के
बाहुल्य के कारण इसे पिछड़ी जातियों के सांस्कृतिक उन्मेष का शहर कहा जा सकता है।
दाउदनगर उन बहुजन कलाकारों का शहर है। दरअसल, यह पूरा शहर आश्विन मास की
द्वितीया तिथि को (प्रायः अक्तूबर में )
भांति –भांति के स्वांग रचता है, लावणी और झूमर गीत गाते हुए रात –रात भर झूमता है।
इस छोटे से शहर में कलाकारों ने भांति –भांति की कलाएं साधी हैं। पानी पर घंटों
सोये रहने की कला या जहरीले बिच्छुओं से डंक मरवाने का करतब। स्वांग रचाते हुए कोई
छिन्न मस्तक हो सकता है तो कोई अपने हाथ पाँव को अलग करता हुए दिख सकता है। आश्विन
मास की आयोजन की रातों में पूरे शहर में कई लोग अलग –अलग देवी –देवताओं की स्वांग
में होते हैं तो कई लोग राजनीतिक व्यंग्य करते हुए अलग –अलग नक़ल –अवतारों में। कई
लोग घंटों स्थिर मुद्रा में खड़े या बैठे होते हैं, पलक झपकाए बिना, कहीं बुद्ध बने
तो कहीं कृष्ण या काली। हमलोगों को भी एक कलाकार, नंदकिशोर चौधरी ने पानी पर आधे घंटे
बिना तैरे स्थिर सोकर दिखाया। चौधरी दाउदनगर के उन तीन कलाकारों में से हैं,
जिन्होंने पानी पर स्थिर लेटने की इस कला को साधा है। वे कहते हैं कि एक बार
उन्होंने एक डूबते बच्चे को बचाने के लिए नहर में छलांग लगाई तो ऐसा लगा कि पानी
उन्हें दुलार रहा है।
स्वांग रचने के उत्सव की शुरुआत का इतिहास वहां के गायकों के गीतों में दर्ज
है, जो महाराष्ट्र के लोकगीत लावणी को मगही में गाते हुए अपने झूमर गीतों में वे
व्यक्त करते हैं। उनके गीतों के अनुसार
संवत 1917 यानी १८६० इसवी में कभी इस इलाके में महामारी फैली
थी। तब महाराष्ट्र से आये कुछ संतों ने दाउद नगर की सीमाओं पर ‘बम्मा देवी’ की
स्थापना की और रात –रात भर जागते हुए महीने भर उपासना करवाई। तब से यह उत्सव जीवित पुत्रिका व्रत ( जीतिया )
के रूम में मनाया जाने लगा। यानी पुत्र की आयु के लिए माताओं का व्रत। प्रसंगवश यह
यह भी यह भी जान लेना रोचक होगा कि साहित्य अकादमी से पुरस्कृत हिंदी कवि
ज्ञानेंद्रपति की एक चर्चित कविता ‘जीवित पत्रिका व्रत लिए हुए’ का शीर्षक इसी त्योहार
के नाम से प्रेरित है। इस कविता में कवि ने उन छपास पीडित कवियों पर व्यंग्य
किया है, जो साहित्यिक पत्रिकाओं को बेचकर संपादकों से अपना नेह-संबंध बनाते हैं।
बहरहाल, ‘बम्मा देवी’ महाराष्ट्र की ‘मुम्बा देवी’ का स्थानीय रूप हो सकती हैं। पेशे से शिक्षक और स्वांग कला में निपुण सत्येन्द्र कहते हैं, ‘संतों ने उपासना के बहाने स्थानीय नागरिकों को महामारी से लड़ने के लिए साफ़ सफाई और अन्य स्वास्थ्य विधियों को अपनाया होगा तथा रात–रात भर जागने के लिए मनोरंजन स्वरुप नक़ल, स्वांग की परंपरा डाली होगी, लावणी गववाया होगा, जिसे परंपरा के रूप में दाउद नगर ने जीवित रखा।’ ब्रिटिश कालीन गजेटियर के अनुसार १८६० के आस –पास का समय विभिन्न महामारियों का समय है, जिससे लड़ने के लिए ब्रिटिश सरकार स्वास्थ्य सेवाओं की योजनायें बना रही थी, लागू कर रही थी।
बहरहाल, ‘बम्मा देवी’ महाराष्ट्र की ‘मुम्बा देवी’ का स्थानीय रूप हो सकती हैं। पेशे से शिक्षक और स्वांग कला में निपुण सत्येन्द्र कहते हैं, ‘संतों ने उपासना के बहाने स्थानीय नागरिकों को महामारी से लड़ने के लिए साफ़ सफाई और अन्य स्वास्थ्य विधियों को अपनाया होगा तथा रात–रात भर जागने के लिए मनोरंजन स्वरुप नक़ल, स्वांग की परंपरा डाली होगी, लावणी गववाया होगा, जिसे परंपरा के रूप में दाउद नगर ने जीवित रखा।’ ब्रिटिश कालीन गजेटियर के अनुसार १८६० के आस –पास का समय विभिन्न महामारियों का समय है, जिससे लड़ने के लिए ब्रिटिश सरकार स्वास्थ्य सेवाओं की योजनायें बना रही थी, लागू कर रही थी।
लावणी में सामाजिक सांस्कृतिक और ऐतिहासिक महत्व की गाथाएं गाई जाती हैं,
धार्मिक मिथों के अलावा। सोण नदी पर बने नहर का विशद वर्णन एक लावणी में दर्ज है
कि कैसे अंग्रेजों ने जनता के पालन के लिए नहर खुदवाया, कि नहर की कितनी गहराई,
चौड़ाई है और कैसे नहर के लिए अभियंताओं ने नक़्शे आदि बनवाये। कला को समर्पित इस
शहर में सामुदायिक सौहार्द के कई उदहारण हैं। जीवित पुत्रिका व्रत उर्फ जीतिया के
दौरान जहाँ शहर के मुसलमान भी स्वांग रचते हैं, झूमते गाते हैं, वहीँ मुसलमानों के
त्योहारों में हिन्दू कलाकारों को भागीदारी बढ़–चढ़ कर होती है। जिन दिनों हमलोग
दाउद नगर पहुंचे उन दिनों मुहर्रम के ताजिये का निर्माण हिन्दू कलाकार शिव कुमार
के निर्देशन में हो रहा था। शहर के ८ से ९ ताजियों के खलीफ़ा शिव कुमार की प्रशंसा करते हुए उन्हें सांप्रदायिक
सौहार्द की मिसाल बताते हैं।
दाउदनगर के वासी इसे वाणभट्ट का भी शहर बताते हैं। कादम्बरी के रचनाकार
वाणभट्ट को आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ‘वाणभट्ट की आत्मकथा’ में नाट्य विधा
में निपुण बताया है। द्विवेदी जी ने अपनी रचना का श्रेय मिस कैथराइन को दिया है,
जो ७५ वर्ष की अवस्था में भी सोन क्षेत्र में घूम कर वाणभट्ट के सन्दर्भ में
सामग्री जुटाती रही थीं। उस सामग्री को उन्होंने द्विवेदी जी को दिया था। ब्राह्मणवादी व्यवस्था नाट्यकर्म को कभी
प्रतिष्ठा नहीं देती रही है, लेकिन जनता के बीच लोकप्रियता के कारण उन्हें ‘भरत
मुनि’ के नाट्य शास्त्र को पंचम वेड मानाना भी पडा था। स्वांग रचाता दाऊदनगर तो कई–कई वाणभट्टों का शहर प्रतीत होता है। कला यहां के लोगों के लिए आय का साधन नहीं है, अलग-अलग पेशों से जुड़े दाउद नगर वासी कला के संधान में लगे हैं, क्या डाक्टर, क्या इंजीनियर या प्राध्यापक, सब के सब स्वांग रचाने के पर्व में सोल्लास शामिल होते हैं। नक़ल विधा में निपुण और पेशे से डाक्टर विजय कुमार कहते हैं, ‘केंद्र और राज्य सरकार को यहाँ की कला और कलाकारों को संरक्षण देना चाहिए.’ वे साथ ही जोड़ते हैं कि ‘कलाओं को समर्पित टी वी कार्यक्रमों के लिए दाउद नगर एक अलग से विषय हो सकता है।’
काश, उनकी इस मांग पर सरकार और मुख्यधारा के मीडियाकर्मी ध्यान देते।
युवा कहानीकार व पत्रकार संजीव चंदन स्त्रीकाल पत्रिका के संपादक हैं जबकि मासिक पत्रिका ‘सोपान’ के संवाददाता आशीष कुमार अंशु खोजी पत्रकारिता के लिए जाने जाते हैं।
No comments:
Post a Comment