154 साल पुराना है दाउदनगर की जिउतिया संस्कृति
उपेन्द्र कश्यप, औरंगाबाद ( जिउतिया संस्कृति पर सिर्फ इस
संवाददाता ने ही शोध किया है। सबसे पहले जब ‘न्यूज ब्रेक’ ने साल 2000 में इस लोक
संस्कृति पर चार पृष्ठ रंगीन सामग्री दिया तब बिहार जाना। कई इलेक्ट्रोनिक मीडिया
वाले आये। एएनआई के जरिये विश्व कई देशों में इसका प्रसारण हुआ।)
बिहार के विभाजन के बाद छउ नृत्य झारखंड की प्रतिनिधि
संस्कृति बन गई। बिहार अब भी किसी लोक संस्कृति को यह दर्जा नहीं दे सका है। उसे
छठ संस्कृति में ही यह क्षमता दिखती है। मगर सिर्फ बहुजनों की इस लोक संस्कृति में
वह क्षमता है। एक लोक गीत बताता है कि यह कब से यहां प्रचलन में है। किसी भी लोक
संस्कृति का प्रारंभ किन लोगों ने कब किया यह ज्ञात शायद ही होता है। मगर जिउतिया
संस्कृति के मामले में ऐसा ही है। “ आश्विन अन्धरिया दूज रहे, संबत 1917 के साल रे
जिउतिया। जिउतिया जे रोपे ले हरिचरण, तुलसी, दमडी, जुगुल, रंगलाल रे जिउतिया। अरे
धनs भाग रे जिउतिया..।“ स्पष्ट बताता है कि पांच लोगों ने इसका प्रारंभ किया
था। कारण प्लेग की महामारी को शांत करने की तत्कालीन समाज की चेष्टा थी। इसमें
कामयाबी भी मिली। लेकिन तब एक महीना तक जो जागरण हुआ वह निरंतरता प्राप्त कर
संस्कृति बन गई। बाद में यह नौ दिन और अब मात्र तीन दिवसीय संस्कृति में सिमट गया।
यह हर साल आश्विन कृष्णपक्ष अष्ठमी को मनाया जाता है। यहां लकडी या पीतल के बने
डमरुनूमा ओखली रखा जाता है। हिन्दी पट्टी में इस तरह सामूहिक जुटान पूजा के लिए
कहीं नहीं होता। यहां शहर में बने जीमूतवाहन के मात्र चार चौको (जिउतिया चौक) पर
ही तमाम व्रति महिलायें पूजा करती हैं। इस संस्कृति में फोकलोट अर्थात लोकयान के
सभी चार तत्व यथा लोक साहित्य, लोक कला, लोक विज्ञान और लोक व्यवहार प्रचुरता में
उपलब्ध हैं। तीन दिन तक होने वाली प्रस्तुतियों में इसे देखा जा सकता है। इसे
बिहार की प्रतिनिधि संस्कृति बनाने के लिए जब नीतिश कुमार मुख्यमंत्री थे तो सरकार
को ज्ञापन सौंपा गया था। सरकार बहुजनों की इस लोक संस्कृति के उत्थान के लिए कुछ
भी नहीं कर रही है। सिर्फ प्रोत्साहन देने की आवश्यकता है। लोक अपने तंत्र (सरकार)
से कुछ नहीं लेती। न सुरक्षा मांगती है न साधन। न तनाव देती है न बवाल। लोग अपने
में मस्त रहते हैं, मस्ती करते हैं और दूसरों को इतना मस्त कर देते हैं कि –‘धन
भाग रे जिउतिया, तोरा अइले जियरा नेहाल रे जिउतिया, जे अइले मन हुलसइले, नौ दिन
कइले बेहाल, रे जिउतिया..” और जब पर्व खत्म होने को होता है तो लोग विरह की वेदना
महसूस करते हैं-“ देखे अइली जिउतिया, फटे लागल छतिया, नैना ढरे नदिया समान। जाने
तोहे बिन घाय्ल हूं पागल समान....”।
कौन थे भगवान जीमुतवाहन ?
दाउदनगर में जिस जीमूतवाहन की पूज बहुअजन करते हैं वास्तव
में वे राजा थे। उनके पिता शालीवाहन हैं और माता शैब्या। सूर्यवंशीय राजा शालीवाहन
ने ही शक संवत चलाया था। इसका प्रयोग आज भी ज्योतिष शास्त्री करते हैं। इस्वी सन
के प्रथम शताब्दी में 78 वे वर्ष में वे राज सिंहासन पर बैठे थे। वे समुद्र तटीय
संयुक्त प्रांत (उडीसा) के राजा थे। उसी समय उनके पुत्र जीमूतवाहन की पत्नी से
भगवान जगन्नाथ जी एवं इनके वाहन गरुण से आशीर्वाद स्वरुप जीवित्पुत्रिका की
उत्पत्ति हुई। इसी का धारण महिलायें अपने गले में करती हैं।
दो जातियों ने दे रखा है “संजीवनी”
औरंगाबाद (बिहार) के दाउदनगर में जिउतिया लोक संस्कृति को
जीवंत बनाये रखने का श्रेय दो जातियों को जाता है। पटवा या तांती और कांस्यकार या
कसेरा। हलवाई जाति के रामबाबू परिवार को भी इसका श्रेय देना होगा। साहित्य में जिन
पांच नामों को इस संस्कृति की स्थापना का श्रेय दिया जाता है वे सभी कांस्यकार
जाति के हैं। लेकिन यह समाज भी यह मानता है कि उनके पूर्वजों ने यह संस्कार पटवा
समाज से ही सीखा था। इमली तल उनके कार्यक्रम को देखने के प्रतिफल स्वरुप इसे
‘रोपा’ गया। आज भी इन दो जातियों की ही भागीदारी होती है।
भगवान शंकर के आंसू से जन्मा तांती समाज
कौन और कहां से आया तांती समाज ?
तिरहुत से आया है तांती
तांत से बना है तांती शब्द
उपेन्द्र कश्यप, औरंगाबाद
कथित तौर पर अपने
पूर्वज की जमीन पर दावा करने के कारण प्रतिष्ठित अभिकर्ता बासदेव प्रसाद को जाति
निकाला देकर चर्चा में आया तांती या पटवा समाज वस्तुत: यहां तिरहुत से आया था।
दाउद खां जब सतरहवीं सदी में दाउदनगर शहर को बसा रहे थे तो तिरहुत से रेशम बुनने
में माहिर जाति तांती को यहां बुलाकर बसाया था। तब इनकी संख्या बमुश्किल दस रही
होगी। इसी कारण सब एक दूसरे के रिश्तेदार हैं। ऐसा बुजुर्ग कलाकार बेसलाल प्रसाद
तांती और रामजी प्रसाद ने बताया। तथ्य है कि यह समाज महर्षि गौतम के तिरहुत से ही
जुडा हुआ है। जब दाउदनगर में यह जाति आई तब भागलपुर से रेशम का कोआ मंगाकर यहां
लूम चलाये जाते थे। यह जाति बुनकर जाति रही है। दाउदनगर में भी इनका मुख्य पेशा
लुम चलाना ही था। गमछी, चादर, कंबल बनाना या रेशम के कपडे बनाना परंपरागत पेशा था।
जब बुनकरी का काम खत्म होने को हुआ तो यह समाज दूसरे धन्धे की तलाश में गया।
एस.गोपाल और हेतूकर झा की संयुक्त पुष्तक ‘पीपुल आफ इंडियन’ के बिहार अध्याय के
सोलहवें पाठ में इस जाति के बारे में कुछ जानकारी दर्ज है। पृष्ठ 914 से 916 के
बीच दर्ज जानकारी के अनुसार इस जाति का मुख्य पेशा लुम चलाना है। तांती शब्द की रचना
तांत से हुई और यह जाति भगवान शंकर के आंसू से उत्पन्न हुई है। इस पुष्तक के
अनुसार इस जाति में अंध विश्वास है। जीव जंतु, पौधे के प्रति विश्वास रखता है।
अंतरजातीय विवाह का चलन है। आज भी ऐसा करने पर बवाल नहीं होता। शंभु कुमार कहते
हैं कि इसी शहर में कई उदाहाण मिल जायेंगे। पुष्तक बताता है कि आधुनिक शिक्षा के
अभाव के बावजूद भी यह समाज सफल है। विकिपिडिया के अनुसार उत्तर प्रदेश के तंतवा
जाति के समकक्ष है तांती, जो देवरिया, गोरखपुर, भोजपुर क्षेत्र, छपरा, सिवान और
आरा क्षेत्र में है। शनिवार को समाज की बैठक दूर्गा क्लब में हुई जहां दो
संवाददाताओं की छपी खबर पर आपत्ति दर्ज कराई गई। एक ने तीसरे की सक्रियता के
प्रभाव में आने की बात कही तो दूसरे ने कही सुनी बात पर लिखने की बात कहा। समाज को
प्रकाशित कई तथाकथित तथ्यों पर आपत्ति है। यह जाति ही जितिया संस्कृति का जन्मदाता
है। यानी कम से कम संवत 1917 से पूर्व यहां आई है न कि 100 सवा सौ साल पूर्व। शंभु
कुमार का कहना है कि पटवा बनाम तांती का उलझन अस्पस्ट है इस कारण इस नाम पर समाज
को आरोपित करना गलत है।