छठा
चेयरमैन-विकास का रामनामी बैंक : राम प्रसाद लाल
‘टाट से कि कुर्सी से’ का नारा गुंजता रहा। आप पढ चुके हैं किंग मेकर की भूमिका जारी रही। यह कोशिश भी कि महाजनी परंपरा से किसी को चेयरमैन बनाया जाए। पहली बार राम प्रसाद लाल चेयरमैन बनाये गए। 11 फरवरी 1958 से 27 फरवरी 1972 तक इस कुर्सी पर बैठे। चौदह साल, एक लंबा वक्त होता है सत्ता के लिए। इतने समय तक आज तक कोई नहीं इस कुर्सी पर बैठ सका है। उन्होंने नई उपलब्धियां कायम की। सन 1951 में कुलदीप सहाय और उसके बाद डा.मुरारी मोहन राय के बाद राम प्रसाद लाल के चेयरमैन बनने तक की प्रवृति को देखें तो ‘टाट से कि कुर्सी से’ की विचारधारा का संघर्ष तीखा था। ‘टाट बनाम कुर्सी’ की विचारधारा प्रबल हो चुकी थी। टाट जमीन पर बिछाया जाता है जिस पर हम आप बैठते हैं। महाजनी परंपरा से चेयरमैन बनाने के खिलाफ की विचारधारा से संघर्ष में तब मध्यम मार्ग अपनाया गया, एक रणनीति के तहत। आखिर बुद्ध के प्रभाव वाले क्षेत्र में उनके मध्यम मार्ग का प्रभाव जो है। कुलदीप सहाय सवर्ण होते हुए भी शांतिप्रिय कमजोर जाति के थे। शहर से बाहर रहते थे। डा.मुरारी मोहन राय (इनके बारे में आगे आप पढेंगे) बंगलादेशी होने के कारण बाहरी थे, कमजोर और काबिल भी। इसलिए किंग मेकर के घर जब बैठक हुई तो इनका चयन किया गया। ताकि खिलाफत की विचारधारा प्रबल न हो सके। राम प्रसाद लाल महजनी परंपरा से थे, वे जाति के नोनियार/रोनियार थे। बहुसंख्यक थे। काबिल और दबदबा वाले घराने से ताल्लुक था उनका। हजारी बाबू इनके चाचा थे। इनका जन्म 29 जुन 1917 ई. को हुआ था। पटना विश्व विद्यालय के शेरघाटी हाई स्कूल से 1938 में 21 वर्ष की आयु में मैट्रिक पास किया था। वहां इनके चाचा हजारी लाल गुप्ता प्रधानाध्यापक थे। इनकी मृत्यू 23 अक्टूबर 1989 को हुई थी। दिसंबर 1957 में चुनाव हुआ था। चेयरमैन के शपथग्रहण की तय तिथि 08 फरवरी 1958 को शपथ नहीं हो सका। इसे रद्द कर दिया गया और दूसरी तिथि तय हुई-11 फरवरी 1958 की और इसी दिन वे चेयरमैन बने। इनके चयन के वक्त भी नारा लगा “टाट पर से कि कुर्सी पर से”। महाजनी परंपरा से इनका चयन हुआ। कोई विपक्ष नहीं। किसी की खिलाफत की चुनौती नहीं। जागरुकता थी या कहें वैमनस्य का भाव नहीं था। खूब इमानदारी से काम किया। किस्मत भी साथ था। 1962 में इनका कार्यकाल पूरा हो गया मगर चुनाव नहीं हुआ। भारत चीन युद्ध के कारण सरकार ने चुनाव नहीं कराया। जब 1964 में चुनाव की प्रक्रिया प्रारंभ हुई तो गोह कोंच के विधायक रहे ठाकुर मुनेश्वर सिंह के परामर्श से चुनाव स्थगित कराने की रणनीति बनी। नगरपालिका ने विभाग को लिखा कि मतदाता सूची अद्यतन नहीं है इसलिए चुनाव कराना न्यायोचित नहीं होगा। सरकार ने इसे स्वीकार करते हुए एक साल का अवधि विस्तार दे दिया। सन 1965 तक के लिए। मगर 1967 में बिहार सरकार ने नियम बदल दिया और डबल सीटेट (यानी दोहरा निर्वाचन) की व्यवस्था खत्म करते हुए एकल निर्वाचन की व्यवस्था कर दी और वार्ड छ: के बदले बारह बना दिये गये। मतदाता सूची का विखंडन हुआ। मगर चुनाव टलता रहा। 1969 या 1970 में गया के कल्क्टर रमेशचन्द्र अरोडा दाउदनगर थाना पर आये। जनता से मिले, बैठक की। लोगों ने चुनाव की मांग की। अक्टूबर 1970 में चुनाव का आदेश जारी हो गया। चुनाव 27 अक्टूबर 1970 को हुआ मगर तब भी कोई चेयरमैन नहीं बन सका। 27 अप्रैल 1972 को यमुना प्रसाद स्वर्णकार के चेयरमैन बनने तक वे चेयरमैन पद पर रहे। खैर..।
खूब इमानदारी से इस बीच काम किया। वर्तमान नगरपालिका मछली बाजार पर स्वतंत्रता सेनानी और विधायक रहे राम नरेश सिंह का कब्जा था। पूर्व चेयरमैन हजारी प्रसाद गुप्ता ने उन्हें यह जमीन मार्केट दान में दे दिया था। कारण था हजारी प्रसाद को राष्ट्रीय स्कूल में हेडमास्टर बहाल करना। इसे खाली कराने की उन्होंने ठान रखा था। सामाजिक, राजनीतिक, न्यायिक, प्रशासनिक और दबंगता के घालमेल से एक व्युहरचना की गई। ढोल बजवाकर उनसे इस मार्केट को खाली कराया। केस मुकदमे की लंबी प्रक्रिया चली। हजारी लाल को कोर्ट में गवाही तक देनी पडी। मार्केट खाली कराकर उसमें शब्जी का बाजार लगाया गया। शहर के केदार कांस्यकार और भगवान बिगहा के तपेश्वर यादव ने इन्हें खदेड भगाया। मगर दुबले पतले शरीर के मालिक राम प्रसाद लाल दृढ इच्छा शक्ति के थे और अंत तक हार नहीं माने। खुद को लौह पुरुष के रुप में स्थापित किया। इन्होंने ही कंपोस्ट बनाने की योजना सरकार को भेजी थी जिसे प्रशंषा तो मिली मगर स्वीकृति नहीं। कंपोस्ट डेवलपिंग स्कीम के तहत योजना भेजी गई थी। दो ट्रेचिंग ग्राउंड बने थे। अशोक हाई स्कूल के पास कील खाना और दूसरा पीरा इलाही बाग (पीराही बाग या कसाइ मुहल्ला) मुहल्ला में। बडा गड्ढा खोदा हुआ था। उसमें कचडा एक परत, दूसरा परत कमाउ शौचालय का पखाना, एक परत फिर शहर का कचडा और फिर पखाना। इससे कंपोस्ट खाद बनाया जाता था। एक रुपया में एक बैल गाडी जैविक खाद शहर में नगरपालिका बेचता था। इससे खेती को उर्वरक मिल जाता था और रसायनिक खाद का इस्तेमाल कम होने से खेतों की उर्वरता कायम रहती थी। सरकार की तरफ से अनुदान देने की व्यवस्था थी, मगर काफी लिखा-पढी के बावजूद अनुदान कभी मिला नहीं। सफाई जमादार जगदीश प्रसाद को इसके लिए 15 दिवसीय प्रशिक्षण के लिए पटना भेजा गया था। सरकार ने योजना की प्रशंसा की अधिकाधिक मदद का आश्वासन दिया मगर हुआ कुछ भी नहीं। इनके जीवन का दूसरा पहलू अध्यात्म से जुडा हुआ था। मात्र 41 साल की उम्र से 14 साल तक चेयरमैन रहने वाले राम प्रसाद लाल मात्र 35 साल की उम्र में वैरागी बन गए थे। अयोध्या चले गए। प्रमोद बन बडी कुटिया अयोध्या के महंत जय राम दास के शिष्य बन गए। उनसे दीक्षा ली। एक महीने से अधिक समय तक वहां रहे। पूरी तरह सात्विक बन गए। घर में लहसुन प्याज वर्जित हो गया। अयोध्या के रामनामा बैंक के सदस्य बन गए। 50 लाख बार ‘राम’ लिखकर नया रिकार्ड बनाया। इसके लिए खाता बही रामनामा बैंक ही दिया करता था। 1990 में उनके इस कार्य के लिए स्वर्ण पदक मिला। अयोध्या पदक बांटने राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह गए। मगर देहांत हो जाने के कारण खुद राम प्रसाद जी नहीं गए और न ही उनके परिजन जा सके। इन्होंने स्कूल खूब खोला। उनका मानना था कि शिक्षा के बिना समाज का विकास संभव नहीं है। खास कर इस पिछडे इलाके में शिक्षा को गरीब, कमजोर तबके तक पहुंचाना आवश्यक है। नतीजा कई स्कूल खोले गए। पटना का फाटक मिडिल स्कूल और बुधु बिगहा मिडिल स्कूल इन्होंने ही खुलवाया। तब शिक्षा कर लगता था। यह अब भी लगता है मगर इस क्षेत्र से नगरपंचायत को कोई मतलब नहीं है। तब शिक्षक बहाली भी नगरपालिका ही करता था। मात्र 15 शिक्षक इनके पहले शहर के लिए थे। इन्होंने 1967 से 1971 के बीच शिक्षकों की संख्या बढा कर 72 कर दी। स्कूलों को अपग्रेड किया। अर्थात प्राइमरी को मिडिल बना दिया। प्राथमिक शिक्षक नियंत्रण एवं ग्रहण अधिनियम 1971 बना तो इन शिक्षकों एवं स्कूलों पर सरकार का नियंत्रण हो गया। शिक्षकों का सरकारीकरण किया था। सभी 72 शिक्षक भी इससे लाभांवित हुए। सन 1971 में शहर में कुल 12 वार्ड बनाए गये। इससे पहले मात्र 06 वार्ड थे। उन्होंने सभी वार्ड में एक स्कूल खोला। इनके कार्यकाल में ही 11 मिडिल और 5 प्राथमिक स्कूल खुल चुका था।
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। सामग्री इसी लेखक (उपेंद्र कश्यप) द्वारा लिखित पुस्तक- “श्रमण संस्कृति का
वाहक-दाउदनगर” में प्रकाशित है । यह निजी शोध कार्य है
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