“डायरेक्ट्री
ऑफ़ दाउदनगर” डॉ.राम परीखा यादव नहीं रहे...
उपेन्द्र
कश्यप, लेखक- ‘श्रमण संस्कृति का वाहक-दाउदनगर’ और दो सन्दर्भ ग्रन्थ ‘उत्कर्ष’
जी
हाँ, डॉ.राम परीखा बाबू नहीं रहे, और वे दाउदनगर के डायरेक्ट्री ऑफ़ दाउदनगर ही थे।
कम से कम मेरी नजर में। यह मेरा सौभाग्य था कि मुझे उनका लंबा सानिध्य मिला। उनके
जितनी जानकारी शहर में किसी को शहर के बारे में शायद कम थी। स्वतंत्रता आन्दोलन का
इतिहास, इसमें भाग लेने वाले स्थानीय जनों का इतिहास, उनके वंशजों के नाम-काम समेत
भला किसे जानकारी होगी? वे सिर्फ स्वतंत्रता सेनानी ही नहीं थे, शिक्षा का अलख
जगाने वाले क्रांतिकारी भी थे, जिनका मकसद था पिछड़े समाज को शिक्षित करना। उनका
शिक्षा के लिए योगदान उल्लेखनीय है। दाउदनगर के इतिहास में 10 जनवरी एक काली तिथि
के रूप में दर्ज हो गयी। मुझे जब भी इतिहास में झांकने की आवश्यक्ता महसूस हुई,
उनसे जाकर मिला। सवाल किया जवाब मिला। अपेक्षा से कम कभी नहीं मिला। जब उनका
स्वास्थ्य एकदम जवाब दे गया तब भी उनसे मिला। बातें की, उनको कोइ आपत्ति नहीं हुई।
हमेशा उपेंदर जी (उपेंद्र नहीं) ही कह कर पुकारते। आवs, बैठs।
हालचाल और फिर मेरी जिज्ञासाओं को शांत करने की कोशिश। उनसे न जाने कितनी बार
मिला, बात की, सवाल पूछा, प्रति और पूरक प्रश्न किया, जवाब मिला। शायद किसी अन्य सहकर्मी
को इतना सानिध्य नहीं मिला न इतनी जानकारी उनसे कोइ ले सका। दैनिक जागरण में जब तक
रहा (17 साल) तब तक कई दर्जन रिपोर्ट उनके हवाले से लिखा। उनकी तस्वीरें प्रकाशित
की। और हर बार कुछ छुट जाने की कसक स्थानाभाव के कारण बची रही। शायद सब कुछ दे
देने से बचने की मेरी प्रवृति भी मुझ पर हावी रही।
खैर,
फिलहाल इतना ही। आप मेरे पुराने लेख पढ़ सकते हैं- जो नीचे हैं।
‘
और जेल की हवा खानी पड़ी ’
(उत्कर्ष
2007 में प्रकाशित उनका साक्षात्कार-अविकल)
डा॰
रामपरीखा यादव
स्वतंत्रता
सेनानी,
वरिष्ट चिकित्सक
अगस्त
क्रांति का वह समय मुझे अब भी याद है, जब भारत छोड़ो
आन्दोलन को लेकर यह क्षेत्र इंकलाब जिंदाबाद, जिंदाबाद के
नारे बुलंद कर रहा था । मैं सिफ्टन हाई स्कूल(अब अषोक उच्च विद्यालय) में दसवीं
कक्षा का छात्र था । सोनहथु(ओबरा) के दिनदयाल सिंह जो पटना पढ़ते थे, हमें हड़ताल करने को प्रेरित किया । बागीचा में बैठक किया गया और अगले दिन
स्कूल नहीं जाने का निर्णय लिया गया । तब साथ-साथ आजादी का नारा बुलंद करने वाले
हीरादास सिंह(लबदना) बक्सर जेल गये, जहाँ उनका मानसिक संतुलन
बिगड़ गया और बेचारे निःसंतान दूनिया से चले गये । खैर, ‘अंग्रेजों
भारत छोड़ो’ का नारा लगाते हुए छात्र-जनता विद्यालय पहुँचे,
गवर्नर बिहार सिफ्टन के तैल चित्र को क्षतिग्रस्त किया गया, उसपर थूका गया, फाटक तोड़ डाले गये । सिंचाई विभाग का
कार्यालय तोड़ डाला गया । तब एसडीओ थे
दिलीपपुर(जगदीषपुर) के महाबीर बाबू, जिन्होंने हमें
ट्रायल में पहचानने से इंकार कर दिया । ज्यूरी ने उन्हें आरोपित करते हुए कहा- ‘तुम आन्दोलन में सीधे तौर पर षामिल हो ।’ सिंचाई
कार्यालय के बाद षराब डीपो में तोड़फोड़ की गयी । कच्चा स्पीरीट में आग लगा दिया,
डाकघर में विस्फोट किया गया । बड़का गाँव(भोजपुर) के रामजनम बाबू
डाकपाल थे । इन्होंने भी पहचानने से इंकार कर दिया । उत्पाद अधीक्षक ने दुधेष्वर
राम (जमुहारा, दाऊदनगर) को पहचाना, उन्हें
जेल जाना पड़ा । दाऊदनगर थाना पर भी आन्दोलनकारी पहुँचे, थानेदार
रामकेष्वर बाबू ने पूछा- ‘क्या करना चाहते हो ।’ आन्दोलनकारियों ने कहा- ‘तिरंगा फहराना है।’ थानेदार ने हां कहा तो यहाँ तिरंगा लहरा दिया गया । मैं हीरादास के साथ
सिपहां पहुँचा । ओवरसीयर बलदेव सिंह ने कहा इधर कहाँ जाइएगा, हम सम्हाल लेंगे । दुध पिलाया और विदा कर दिया । उधर पेड़ काट कर रास्ता
बंद कर दिया गया । बेलाढ़ी गये जहाँ रामाषीष बाबू , रामकुमार
सिंह सक्रिय छात्र थे । रात्रि में विष्वम्भर बिगहा गये जहाँ विषुनधारी सिंह
षिक्षक ने रात्रि में रोका, वह जोर की बारिष अब भी याद है ।
सुबह जिनोरिया पूल टूटा हुआ पाया । इस दिन तारा में चन्द्रदेव सिंह षिक्षक के दादा
कैलाष सिंह ने रात्रि में रोका । अगस्त क्रांति के बाद जेल जाना पड़ा । पिता
रामरेखा सिंह एवं माँ ने कहा- जेल चले जाओ नहीं तो पूरा घर बर्बाद हो जायेगा । दो
माह जेल में रहना पड़ा । औरंगाबाद और गया सेन्ट्रल जेल में । इसी बीच भादो षष्ठी(1942)
को पिता का देहान्त हो गया । पन्द्रह अगस्त 1947 को मैं गया में यादव छात्रावास में था, जहाँ
नेहरूजी का भाषण सुना, उनकी यह पक्ति आज भी याद है- ‘सारी दुनिया सो रही है, हम अभी जाग रहे हैं ।’
मेरा सपना है कि जय प्रकाष नारायण जी के नाम पर यहाँ एक पार्क बने ।
पुस्तकालय हो ।उनके पिता यहाँ कैनाल विभाग में गिरजौर (सर्किल ऑफिसर) थे । अषोक
उच्च विद्यालय में चपरासी रहे रामकिषोर ने उन्हें अपनी गोदों में खेलाया है । वह
कहते भी थे- ‘मैं भाग्यषाली हूँ मेरे हाथों ने भारतमाता के
महान सपूत को खेलाया है ।’ यहाँ जेपी सन् 1938 में चावलबाजार में आये थे, जब उन्हें देखा था ।
भावी पीढ़ी पढ़े लिखे, लोकतंत्र मजबूत हो, नैतिकता का क्षरण अब रूके यही मेरी अकेली इच्छा है ।
(श्रमण
संस्कृति का वाहक-दाउदनगर में प्रकाशित लेख में उनसे संबंधित पंक्तियाँ)
1....
आज समाज भले ही समानता के अधिकार के प्रति जागरुक हुआ है, कानून भेदभाव खत्म करने में सहायक हुआ, लेकिन
सामाजिक भेदभाव का शिकार बनने की घटनाएं अब भी होती है, किंतु
यदा-कदा। अब रोजमर्रे की बात नहीं रह गई है। वर्जनायें टूटने लगीं हैं, सामाजिक, राजनीतिक दिशा बदलने से समाज की दशा भी
बदली है। गुलाम भारत में बच्चों के नामांकन राजनीतिक कारणों से भी नहीं होता था।
इसके उदाहरण हैं- स्वतंत्रता सेनानी और इलाके के चलते-फिरते डाइरेक्ट्री (जी मैं
इन्हें ऐसा ही मानता-जानता हूं) डा.राम परीखा यादव। अपनी किशोरावस्था में वे अगस्त
क्रांति में शामिल हो गये थे। नतीजा उनका सिफ्टन हाई स्कूल में नामांकन नहीं हो
रहा था। 01 अक्टूबर से 25 नवंबर 1942
तक उनकी पढाई बाधित रही। बिहार सरकार की अनुमति के बिना इनका
नामांकन नहीं होना था। तब सिफ्टन हाई स्कूल के प्रधानाध्यापक थे यामिनी कांत
चटर्जी। उन्होंने नामांकन करने से इंकार कर दिया। नामांकन के लिए तब वे अपने ससुर (बाद
में ससुर बने थे) के भाई सब डिविजनल बोर्ड औरंगाबाद के उपाध्यक्ष रामनारायण सैनिक
के पास गये। फिर दोनों डिस्ट्रिक्ट बोर्ड गया के चेयरमैन रामचन्द्र शर्मा के
पास गये। उन्होंने पटना प्रक्षेत्र के
स्कूल इंसपेक्टर आशुतोष घटक के पास पैरवी का पत्र देकर भेजा, आदेश हुआ तब इनका नामांकन दसवीं कक्षा में हो सका। पुरानी शहर के परमेश्वर
प्रसाद को मैट्रिक (1970) के बाद सेंटजेवियर कालेज रांची से
पढना था। उन्होंने मैट्रिक में 700 में 609 अंक लाया था। कालेज के मेरिट लिस्ट में भी उनका नाम शामिल हुआ। इसके
बावजूद उन्हें जब फादर के पास भेजा गया तो उन्होंने अपमानित किया। कहा कि-‘गया जिला का हो इसलिए नामांकन नहीं लेंगे।‘ सवाल
पूछा कि-‘गया जिला का होना गुनाह है क्या?’ खैर नामांकन नहीं हुआ। कुछ दिन रांची कालेज में पढे और आरा लौट गये।
महाराजा कालेज से इंटर किया।
2.....
सन 1940
में अगनूर मिडिल स्कूल (बाद में वही हाई स्कूल हुआ) खुला। हम अतीत
में प्रतिद्वन्धिता भी इस क्षेत्र में देखते हैं। डा.रामपरीखा यादव जानते हैं कि
जब अगनूर के वैश्य जमीन्दार नागेश्वर प्रसाद और गया प्रसाद ने स्कूल खोला तो अरई
के भूमिहार समाज में स्वस्थ बेचैनी बढ गई कि जब वैश्य खोल सकते हैं तो हम क्यों
नहीं? इसके बाद अरई के जमींदार मज्जु मियां से जमीन लेकर
स्कूल खोला गया जो बाद में अरई हाई स्कूल बना। इसके लिए प्रबन्ध समिति के प्रथम
सचिव रामदेनी मौआर, गिरधारी शर्मा और धर्मदेव शर्मा जैसे
प्रबुद्ध लोग सक्रिय भूमिका में रहे।