Saturday, 13 September 2025

5000 की भी नहीं रही थी आबादी, जब गढ़ी गयी जिऊतिया लोक संस्कृति

 


वर्ष 1860 से पहले से यहां जिउतिया लोक उत्सव 

जिउतिया लोकोत्सव का कारण प्लेग की महामारी

आज है नगर परिषद क्षेत्र की जनसंख्या 65543

उपेंद्र कश्यप, जागरण ● दाउदनगर (औरंगाबाद) : दाउदनगर में जितिया लोकोत्सव का आरंभ न्यूनतम वर्ष 1860 माना जाता है। यह मानने का आधार है एक लोकगीत। यह लोकगीत कसेरा टोली स्थित जीमूतवाहन भगवान के मंदिर पर यहां के श्रद्धालु गाते हैं। पंक्ति है- जितिया जे रोप ले हरिचरण, तुलसी, दमड़ी, जुगल, रंगलाल रे जितिया। संवत 1917 के साल रे जितिया, अरे धन भाग रे जितिया।

संवत 1917 अर्थात 1860 ईस्वी सन में यहां जिउतिया संस्कृति का आरंभ हुआ है। हालांकि इससे पहले इसका आरंभ पटवा टोली इमली तल तांती समाज द्वारा किया गया माना जाता है। जिसका नकल कांस्यकार समाज ने किया। कालांतर में इस समाज के लोगों ने गीत लिखे तो यह बात सामने आई कि कांस्यकार समाज के किस किस व्यक्ति ने इसका आरंभ किया। महत्वपूर्ण तथ्य है कि यहां का कांस्यकार समाज तब सबसे समृद्ध जातियों में शामिल था। इसकी वजह यह है कि यहां बर्तन उद्योग काफी समृद्ध था। कई कई रोलर मिल तक यहां बने लगे थे। प्रायः घरों में बतौर कुटीर उद्योग पीतल कांसा के बर्तन बनाए जाते थे। अर्थतंत्र मजबूत था तो स्वाभाविक है कि समाज भी अपेक्षाकृत अधिक सक्रिय और समृद्ध था। दूसरी तरफ पटवा तांती समाज तब श्रम का ही कार्य करता था और कुछ घरों में बुनकरी का कुटीर उद्योग भी चलता था। इमली तल इस तरह के गीत नहीं गए जाते जिससे यह ज्ञात हो कि यहां जितिया का आरंभ कब, किसने, किस परिस्थिति में किया।

यहां प्लेग देवी मां का मंदिर और लावणी की उपस्थिति यह बताती है यह संस्कृति का बीज तत्व महाराष्ट्र से जुड़ा हुआ है। कहा जाता है कि यहां प्लेग की महामारी आई थी। जिसे रोकने के लिए तब चिकित्सकीय व्यवस्था चूंकि उपलब्ध नहीं थी तो लोग जादू टोना पर अधिक निर्भर करते थे और तब महाराष्ट्र से यहां ओझा गुनी लाये गए थे। इसके बाद से ही यह आरंभ हुआ था। प्लेग की महामारी से बचाव के जो उपाय किए गए, उसमें रतजगा भी था। रात-रात भर लगातार कई रात जागने के उपाय के तौर पर करतब, नौटंकी, नाटक, गायन समेत अन्य लोक कलाओं की प्रस्तुति की जाने लगी। यही बाद में परंपरा का रूप धरते हुए यहां की लोक संस्कृति में परिवर्तित हो गई। तब शहर की जनसंख्या बमुश्किल 5000 की रही होगी। महत्वपूर्ण तथ्य है कि 1885 में दाउदनगर को शहर का दर्जा प्राप्त हुआ था। यह नगर पालिका बना था और 1881 में यहां की जनसंख्या 8225 थी। इससे पहले की जनसंख्या का आंकड़ा उपलब्ध नहीं है। स्वाभाविक है कि इससे 20 साल पूर्व 5000 से अधिक आबादी होने का अनुमान नहीं लगाया जा सकता। फिलहाल 2011 की जनगणना के अनुसार इस शहर की आबादी 52340 है। जबकि वर्ष 2023 में हुए जाति सर्वे रिपोर्ट के अनुसार शहर की जनसंख्या 65543 है।

Friday, 12 September 2025

बिहार का अकेला शहर जहां दिखते हैं लोकयान के सभी तत्व

 



प्रत्येक वर्ष तीन दिन के लिए बौराया सा लगता है शहर 

आश्विन मास में जिउतिया में होता है यह लोकोत्सव

बिहार की प्रतिनिधि संस्कृति बनने की है पूरी क्षमता

उपेंद्र कश्यप, जागरण ● दाउदनगर (औरंगाबाद) : देश के हिंदी पट्टी में माता द्वारा सन्तान के दीर्घायु होने की कामना के लिए किया जाने वाला प्रख्यात पर्व है जिउतिया। लेकिन बिहार के दाउदनगर में इस व्रत को लोक उत्सव के रूप में मनाया जाता है। प्रदेश का यह अकेला ऐसा शहर है जहां प्रत्येक वर्ष तीन दिन में आप लोकयान के सभी तत्वों को एक साथ देख सकते हैं। ऐसी प्रस्तुतियां आपको अन्यत्र किसी शहर में नहीं मिलेंगे। संयुक्त बिहार की प्रतिनिधि संस्कृति थी छऊ नृत्य। झारखंड विभाजन के बाद बिहार को प्रतिनिधि संस्कृति की तलाश है, जिसे छठ व्रत तक जाकर पूरी मान ली जाती है। लेकिन लोक संस्कृति के जो सभी तत्व हैं, अगर वह कहीं एक साथ, किसी एक शहर में, किसी एक आयोजन में लगातार तीन दिन तक देखने को उपलब्ध होता है तो उसका नाम है दाउदनगर का जिउतिया लोकोत्सव। जिउतिया प्रत्येक वर्ष आश्विन कृष्ण पक्ष अष्टमी को मनाया जाता है। लेकिन दाउदनगर में कृष्ण पक्ष की सप्तमी तिथि अर्थात नहाए खाए, व्रत और फिर पारण यानी लगातार तीन दिन तक यह अपने चरम पर होता है। हालांकि पूर्व में आश्विन कृष्ण पक्ष की पहली तिथि अर्थात अनंत चतुर्दशी के दूसरे दिन से कृष्ण पक्ष की दशमी तिथि तक निरन्तर नौ दिन तक यहां लोक उत्सव मनता था। लोक संस्कृति के सभी आयामों के प्रदर्शन हुआ करते थे। जो सिमट कर अब तीन दिन की सीमा में बंध गए हैं। इस दौरान पूरा शहर बौराया हुआ सा लगता है। लगता है जैसे पूरा शहर ही लोक संस्कृति का प्रस्तोता बन गया है। महत्वपूर्ण है कि लोकयान के जो चार प्रमुख तत्व हैं- लोक साहित्य, लोक व्यवहार, लोक कला और लोक विज्ञान इन सभी की प्रचुरता में यहां प्रस्तुति होती है। जिसे देखने दूर दराज से लोग आते हैं। कहते हैं कि कोई घर ऐसा नहीं जहां कोई एक अतिथि इसे देखने ना आता रहा हो इस शहर में।




न्यूनतम 164 साल पुरानी है यह लोक संस्कृति

जिउतिया लोग उत्सव के वक्त शहर के कसेरा टोली स्थित जीमूतवाहन भगवान के मंदिर परिसर में लोक कलाकार एक गीत गाते हैं- जिउतिया जे रोपे ले हरिचरण, तुलसी, दमड़ी जुगल, रंगलाल रे जितिया। संवत 1917 के साल रे जितिया। अभी संवत 2081 चल रहा है अर्थात 164 साल पहले यहां जिउतिया का आरंभ हुआ था। लेकिन यह एक तथ्य है कि यहां इसका आरंभ इमली तल होने वाले जिउतिया लोकोत्सव की देखा देखी आरंभ किया गया था। यानी नकल किया गया था। इसीलिए दाउदनगर के इस लोक उत्सव को नकल पर्व के रूप में भी जाना जाता है। लेकिन संवत 1917 से पहले इमली तल इसका आरंभ कब हुआ इसका स्पष्ट उल्लेख यहां के लोक साहित्य में नहीं मिलता है। 


औरंगाबाद में पुनपुन किनारे छह स्थानों पर होता है पिंडदान



पुनपुन में प्रथम स्नान, तर्पण व पिंडदान आवश्यक

औरंगाबाद में पुनपुन दूसरी नदियों से मिल बनाती है तीन संगम

उपेंद्र कश्यप, जागरण ● दाउदनगर (औरंगाबाद) : पितरों को पिंडदान करने के लिए गयाजी सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान है। विश्व भर से यहां लोग आते हैं। इसके अलावा पुनपुन नदी का भी अपना महत्व है। गयाजी जाने से पहले पुनपुन में स्नान, तर्पण व पिंडदान करना आवश्यक माना जाता है। इस नदी के कई नाम हैं और इसकी अपनी विशेषता भी है। जिले के छह स्थानों पर सनातनी पिंडदान करते हैं। कर्मकांडी आचार्य पंडित लाल मोहन शास्त्री ने बताया कि पितृ पक्ष शुरू होते ही सनातनी अपने पितरों के उद्धार के लिए तर्पण करते हैं। गया श्राद्ध करने वाले यात्री प्रथम पुनपुन में स्नान, तर्पण और पिण्डदान करने के गया में प्रवेश करते हैं। महत्वपूर्ण है कि औरंगाबाद में जीटी रोड पर शिरीष, अनुग्रह नारायण रोड स्टेशन से पश्चिम जम्होर विष्णु घाम में, अदरी पुनपुना संगम ओबरा, सूर्यघाट चनहट हसपुरा, भृगुरारी देवहरा (गोह) में और दक्षिण पथ गामिनी गोरकट्टी में तर्पण पिण्ड दान करते हैं। ध्यान रहे कि झारखण्ड के वायव्य कोण से निकल कर बिहार के औरंगाबाद जिला के नबीनगर, ओबरा, हसपुरा, गोह प्रखण्ड क्षेत्र से होते हुए जहानाबाद में प्रवाहित होकर फतुहा पटना के पास गंगा में मिल जाती है पुनपुन। इस में महत्वपूर्ण तीन संगम हैं। प्रथम बटाने नदी पर जम्होर में, अदरी नदी पर ओबरा में और मदाड़ नदी पर गोह के भृगुरारी में। इसमें जम्होर औरंगाबाद अनुमंडल में जबकि अन्य दो दाउदनगर अनुमंडल क्षेत्र में हैं। श्री शास्त्री बताते हैं कि यह तीनों संगम महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती के प्रतीक स्वरूप सनातनी मानते हैं। 


भगवान श्री राम व अहिल्या बाई ने किया है पुनपुन में पिंडदान


पौराणिक और आधुनिक इतिहास के अनुसार पुनपुन नदी में दाउदनगर अनुमंडल क्षेत्र में दो स्थानों पर भगवान् श्रीराम और अहिल्याबाई होलकर ने अपने पितरों के लिए पिंडदान दिया है। बताया जाता है कि श्री राम अपने परिवार के साथ गया श्राद्ध के लिए जाने के क्रम में देवकुंड में शिव लिंग स्थापित किये। गोह के भृगुरारी स्थित मदाड़- पुनपुन के संगम स्थल ओर एक शिव लिंग स्थापित किया। जो मन्दारेश महादेव के नाम से विख्यात है। भगवान श्रीराम ने संगम में स्नान तर्पण कर पिण्डदान किया। इसके बाद गया जी धाम गये। दूसरा महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि इन्दौर की महारानी अहिल्या बाई होलकर ने देवहरा में पुनपुन किनारे शिव लिंग स्थापित किया। पुनपुना में सीढ़ी और धर्मशाला बनवाया। स्नान, तर्पण पिण्डदान कर गया जी धाम गईं। 


महाभारत से भी है अनुमंडल क्षेत्र का संबन्ध

माना जाता है कि महाभारत युग में भगवान श्री कृष्ण अर्जन और भीम के साथ देवहरा पुनपुन में स्नान पूजन कर राजगीर जरासंघ के घर गये थे।

यह क्षेत्र हर युग में प्रसिद्ध रहा है। मान्यता है कि पुनपुन क्षेत्र में मरने वाले व्यक्ति के पार्थिव देह को दूसरी जगह नहीं ले जाना चाहिये। पुनपुन तट पर दाह संस्कार करने से जीव को सद्गति प्राप्त हो जाती है।


Tuesday, 9 September 2025

आधुनिकता के साथ जिउतिया में निमंत्रण का बदल गया स्वरूप


आधुनिकता के साथ जिउतिया में निमंत्रण का बदल गया स्वरूप 



विवाह की तरह छपा हुआ बांटा गया निमंत्रण पत्र 

पहले चावल और कसैली से दिया जाता था लोगों को निमंत्रण 

उपेंद्र कश्यप, जागरण ● दाउदनगर (औरंगाबाद) : आधुनिकता का प्रभाव संस्कृति पर भी पड़ता है। दाउदनगर में न्यूनतम 165 साल से मनाये जा रहे जिउतिया लोकोत्सव में भी कई परंपरा के स्वरूप में भी परिवर्तन दिखता है। कांस्यकार समाज द्वारा पहले चावल और कसैली घरों में देकर उन्हें आमंत्रित किया जाता था। ताकि लोग नौ दिन के इस लोकोत्सव में खुशीपूर्वक शामिल हो सकें। यह समाज के स्तर पर यानी सिर्फ कांस्यकार समाज के लिए ही परंपरा है। इसके लिए सबसे पहले समाज के अगुआ लोग कांस्यकार पंचायत समिति के मंदिर में देवताओं को निमंत्रण देते हैं, ताकि आयोजन में कोई बाधा ना हो। सभी हर्षोल्लास के साथ व्रत मना सकें। इस बार जो निमंत्रण कार्ड छपे हैं कांस्यकार पंचायत समिति की तरफ से उसमें जीत वाहन और मल्यवती का विवाह बताया गया है। विवाह की तिथि 14 सितंबर रखी गई है जिस दिन जियुतपुत्रिका व्रत है। इस कार्ड में रविवार को मटकोर, सोमवार को धृतढाढ़ी, मंगलवार को हल्दी, गुरुवार को मड़वा, शुक्रवार को तिलक, शनिवार को मेहंदी, रविवार को शुभ विवाह और आगामी सोमवार को चौथाडी के कार्यक्रम का समय दिया गया है। 


महत्वपूर्ण है कि कांस्यकार समाज द्वारा जितिया का आगाज मतकोड के साथ जीमूतवाहन भगवान के मंदिर में ओखली रखकर किया जाता है। और अंत शव यात्रा की नकल निकालकर किया जाता है। यह भी ध्यान देने की बात है कि दूर दूर से कांस्यकार जाति के लोग जिउतिया के अवसर पर अपने घर आते हैं। इनके रिश्तेदार भी आते हैं। प्रायः घरों में कोई न कोई रिश्तेदार जिउतिया देखने आया हुआ रहता है। 


उद्देश्य समाज की सहभागिता बढाना



कांस्यकार पंचायत समिति के सदस्य धीरज कांस्यकार बताते हैं कि बीते कई वर्षों से यह परंपरा बदल गई। अब लोग कार्ड छपवाते हैं। देवता पर चढ़ाते हैं और समाज के लोगों को देकर निमंत्रित करते हैं। इसका उद्देश्य यह है कि समाज के तमाम लोगों की सहभागिता बढ़ चढ़कर इसमें हो। 





 जीमूतवाहन मन्दिर में ओखली रख की पूजा

महिला पुलिस बल तैनात करने की मांग



संवाद सहयोगी, जागरण ● दाउदनगर (औरंगाबाद) : चौक बाजार स्थित जीमूतवाहन मंदिर में सोमवार की देर शाम ओखली रख पूजा अर्चना की गई। पुजारी अमित मिश्रा ने पूजा कराया। जजमान के रूप में प्रदीप प्रसाद व पवन कुमार रहे। आरती व पूजा के बाद प्रसाद वितरण किया गया। जिउतिया महोत्सव को आकर्षक बनाने का लिया गया निर्णय लिया गया। बरसात को देखते हुए श्रद्धालु भक्तों को परेशानी ना हो इसलिए वाटरप्रूफ पंडाल बनाए जाएंगे। मार्ग में रौशनी का प्रबंध किया जाएगा। स्थानीय पुलिस प्रशासन से मांग की गयी कि महिला पुलिस बल चारों चौक पर अधिक मात्रा में तैनात किया जाए। ताकि किसी भी अप्रिय घटना पर लगाम लगाया जा सके। इस अवसर पर कमेटी अध्यक्ष संजय प्रसाद उर्फ मुन्ना, पप्पू गुप्ता, उमेश कुमार, भाजपा नगर अध्यक्ष श्याम पाठक, शालू कुमार, बल्लू कुमार, मनोज प्रसाद, दीपक दयाल, कुमार राहुल राय, रोहित कुमार शामिल रहे। महत्वपूर्ण है कि यहां समेत शहर में स्थित भगवान जीमूतवाहन के सभी चार मंदिरों पर महिला व्रती सामूहिक रूप से व्रत के दिन भगवान जिमूतवाहन की पूजा करते हैं। इस दौरान कई बार व्रती महिलाओं के सोने के जेवर चोरी हो जाते हैं। यह काम महिलाएं ही करती हैं। इसलिए महिला पुलिस बल की तैनाती आवश्यक मानी जाती है। 


Thursday, 17 July 2025

खुदाई में मिले 1300 साल पुराने शिवलिंग की कई विशेषताएं

 



एक ही शिवलिंग में ब्रह्मा, विष्णु और महेश की कल्पना साकार 

ग्रेनाइट पत्थर से निर्मित शिवलिंग को किया गया है संरक्षित

उपेंद्र कश्यप, जागरण ● दाउदनगर (औरंगाबाद) : देवकुंड मठ के महंत कन्हैया नंद पुरी ने जब मंदिर का जीर्णोद्धार कार्य प्रारंभ कराया और इसके लिए मंदिर परिसर में खुदाई का काम शुरू हुआ तो एक शिवलिंग निकला। यह घटना 2018 की बताई जाती है। इस शिवलिंग की कई विशेषताएं हैं। इसे पालकालीन बताया जाता है। अर्थात लगभग 1200 से 1300 साल पुराना आया है। प्रतिमा विज्ञान के अनुसार इस शिवलिंग में ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों का मिश्रित साकार रूप है। हेरीटेज सोसाईटी के महानिदेशक डा. अनंताशुतोष द्विवेदी बताते हैं कि इस शिवलिंग का निर्माण अष्टांगुल शैली में है। सबसे नीचे का भाग अष्टकोणीय बना हुआ है। जिसे अरघा में स्थापित किया जाता है। इस शिवलिंग की विशेषता यह है कि जो लिंग आकार में है, जिस पर श्रद्धालु जल डालते हैं, वह रुद्र भाग कहा जाता है। शिव का एक नाम रूद्र भी है। इसके नीचे अष्टकोणीय निर्माण होता है जिसे अरघा (स्त्री भाग) में रखकर स्थापित किया जाता है। क्योंकि यह अष्टकोणीय होता है इसलिए इसे विष्णु भाग कहते हैं। और सबसे नीचे जो शिवलिंग का तीसरा हिस्सा होता है वह चार कोणीय है। इसलिए इसे ब्रह्म पीठ कहते हैं। यानी एक ही शिवलिंग में सबसे नीचे ब्रह्म पीठ, मध्य में विष्णु पीठ और अग्रभाग जो दिखता है वह रूद्र पीठ है। डा. अनंताशुतोष के अनुसार सातवीं आठवीं सदी का यह शिवलिंग हो सकता है। बनावट की कला के आधार पर यह कहा जा रहा है।



ग्रिल से सुरक्षित, होती है पूजा 

मंदिर निर्माण के समय खुदाई के दौरान जब यह शिवलिंग मिला था तो इसका महत्व लोग नहीं समझ पा रहे थे। बस सामान्य शिवलिंग की तरह इसे देखा गया। लेकिन जब पुरातत्व विदों ने इसके पालकालीन होने की बात कही तो इसे संरक्षित करने के लिए मंदिर परिसर में ही स्टील के ग्रिल से इसे सुरक्षित कर दिया गया। स्टील का यह ग्रिल ऐसा निर्मित किया गया कि लोग इसे सहजता से देख सकें। अब श्रद्धालु इसकी पूजा भी करते हैं।



क्षेत्र में पालकालीन शिवलिंग की उपलब्धता 


हेरिटेज का मगध नाम से मगध क्षेत्र के धार्मिक पौराणिक स्थलों पर डाक्यूमेंट्री बनाने वाले धर्मवीर भारती कहते हैं कि देवकुंड ही नहीं बल्कि दाउदनगर अनुमंडल का शहरी क्षेत्र हो या ग्रामीण क्षेत्र, इस क्षेत्र में

पालकालीन शिवलिंग की उपलब्धता खूब है। पौराणिक मंदिरों के अवशेष मगध के इस पश्चिम क्षेत्र में खूब मिलते हैं। देवकुंड के साथ-साथ भृगुरारी, दाउदनगर शहर के कई मंदिर और अरवल का मधुश्रवा इसके उल्लेखनीय प्रमाण हैं।



प्राचीन मूर्तियों पर रहती है चोरों की नजर 

इस क्षेत्र में प्राचीन शिवलिंग विशेष कर पाल कालीन खूब मिलते हैं। यही कारण है कि चोरों की नजर क्षेत्र के शिवालयों और अन्य मंदिरों पर रहती है। इस क्षेत्र में न सिर्फ शिव के बल्कि राम, कृष्ण, जानकी, भगवती की प्रतिमाओं की चोरी की घटनाएं खूब हुई है। दाउदनगर अनुमंडल मुख्यालय से नौ किलोमीटर दूर हसपुरा प्रखंड का एक गांव है सिहाड़ी। यहां अहिल्याबाई होल्कर द्वारा निर्मित शिव मंदिर है। यहां के ठाकुरबाड़ी स्थित राम जानकी दरबार की मूर्तियां कर उठा कर ले गए चोर। मढ़ी धाम से मां भगवती की प्रतिमा की चोरी हुई थी। जिसमें अंतरराज्यीय गिरोह के 12 सदस्य गिरफ्तार हुए थे। बाद में प्रतिमा भी बरामद हुई थी, और तब यह बताया गया था कि चोरी की गई इस प्रतिमा का बाजार मूल्य लगभग 50 लाख रुपये है। डुमरा के ठाकुरबारी से राम जानकी की प्रतिमा चोरी हुई थी। इसलिए इस तरह की महत्वपूर्ण प्रतिमाओं की सुरक्षा की चिंता भी बनी रहती है।


शिवधाम देवकुंड में एक नहीं, हैं कई मन्दिर

 


यहां मुख्य शिवलिंग के अतिरिक्त भी हैं कई देवी देवता

देवकुंड धाम शब्द बताता है गांव नहीं समुदाय का था मंदिर 

उपेंद्र कश्यप, जागरण ● दाउदनगर (औरंगाबाद) :

देवकुंड मंदिर परिसर में आप कभी भी जाएंगे तो कई स्थान ऐसे हैं जहां लोग पूजा करते दिखेंगे। कहीं बिल्व पत्र चढ़ाते हैं, कहीं सिंदूर, रोरी, अक्षत और चंदन चढ़ाते हैं और हवन कुंड भी अलग है। पूरे मंदिर परिसर में एक नहीं बल्कि कई स्थानों पर यहां आए श्रद्धालु पूजा अर्चना करते हैं। मुख्य मंदिर में गर्भ गृह के बाहर भी कई देवी देवताएं हैं, जिनकी पूजा अर्चना की जाती है। मंदिर के प्रवेश द्वार से सटे भी मंदिर है, जहां पूजा अर्चना की जाती है। यह सब यूं ही नहीं है। आमतौर पर एक ही मंदिर परिसर में पूजा के कई स्थान विभिन्न मंदिरों में मिलते हैं। लेकिन यहां एक बड़े परिसर में कई स्थान पूजा के लायक हैं और खुले के साथ-साथ मंदिर भी बने हुए हैं। यह सब यूं ही नहीं है। आमतौर पर देवकुंड मंदिर शब्द का इस्तेमाल किया जाता है लेकिन वास्तव में इसे देवकुंड धाम बोला जाता है। धाम का मतलब ही होता है कि इस परिसर में एक नहीं बल्कि कई शिव मंदिर थे। 



कई काल खंड में हुए हैं निर्माण कार्य

हेरीटेज सोसाईटी के महानिदेशक डा. अनंताशुतोष द्विवेदी बताते हैं कि इसे धाम कहा जाता है। इससे साफ संकेत मिलता है कि परिसर में एक नहीं बल्कि कई शिवालय थे। एक ही शिव मंदिर यहां नहीं रहा होगा। यह गांव का नहीं बल्कि समुदाय का मंदिर परिसर था। जहां एक बड़े क्षेत्र से लोग शिव की आराधना करने आते थे। बताया कि कई काल खंड में यहां निर्माण के काम हुए हैं। आसपास गांव रहे हैं। इस बात का वहां पुरातात्विक साक्ष्य भी मिला है।



शिवलिंग का परीक्षण होना आवश्यक

मंदिर के गर्भ गृह में स्थापित शिवलिंग को नीलम का बताया जाता है, लेकिन जानकारों की मानें तो अरघा प्राचीन है लेकिन यह शिवलिंग प्राचीन नहीं है। महंत कन्हैयानंद पूरी बताते हैं कि जब केदार पुरी इसके महंत थे तब इस बात का परीक्षण शायद हुआ था कि शिवलिंग नीलम का है या नहीं। महत्वपूर्ण है कि केदारपुरी 1974 से 1990 में अपनी हत्या होने तक यहां के महंत थे।



भगवान राम ने किया था शिवलिंग स्थापित

देवकुंड धाम के महंत कन्हैया नंदपुरी बताते हैं कि महर्षि च्यवन का यह आश्रम है। यहां भगवान राम द्वारा शिवलिंग की स्थापना की गई थी। देश के 12 ज्योतिर्लिंगों में देवकुंड का शिवलिंग भले शामिल नहीं है, लेकिन उज्जैन के महाकाल का इसे उप ज्योर्तिलिंग कहा जाता है। कर्मकांडी और इस क्षेत्र के धार्मिक इतिहास के जानकार आचार्य लालमोहन शास्त्री भी मानते हैं कि यहां का शिवलिंग उज्जैन के महाकाल का उप ज्योतिर्लिंग है।


Wednesday, 16 July 2025

3000 साल पूर्व भी रही है देवकुंड क्षेत्र में मानव गतिविधि

 

दैनिक जागरण : 16 जुलाइ 2025

1400 साल पुराना है देवकुंड का मंदिर 

पाल कालीन है मंदिर और यहां का शिवलिंग 

हर्षवर्धन काल में देवकुंड की ओर से बहता था सोन

 उपेंद्र कश्यप, जागरण ● दाउदनगर (औरंगाबाद) :


 अनुमंडल के गोह क्षेत्र में स्थित देवकुंड की प्राचीनता को लेकर चर्चा होते रहती है। हालांकि अभी तक इस संबंध में कहीं भी कुछ भी स्पष्ट लिखित नहीं है। लेकिन यहां मिले शिवलिंग और अन्य साक्ष्य यह बताते हैं कि यह काफी प्राचीन क्षेत्र है। देवकुंड में जून 2018 में मंदिर परिसर से निर्माण के बाद एक शिवलिंग निकला था। यह पाल कालीन शिवलिंग माना जाता है। मंदिर की संरचना भी बताती है कि यह पाल कालीन ही है। और यह भी महत्वपूर्ण है कि हर्षवर्धन के काल में यानी छठी, सातवीं शताब्दी में सोन देवकुंड होते हुए रामपुर चाय होकर प्रवाहित होता था। इससे यह बात स्पष्ट होती है कि छठी सातवीं सदी में ही देवकुंड का मंदिर निर्मित हुआ था। हालांकि यहां देखे गए कुछ मृद भांड इसके 3000 साल प्राचीन होने का भी संकेत देते हैं। यह भी ध्यान देने योग्य है कि पुरातात्विक महत्व के माने जाने वाले टीला पर मंदिर की संरचना है। मतलब यहां आसपास बसावट प्राचीन काल में भी रही है। यहां उत्तरी कृष्ण मार्जित मृदभांड यानी एनबीपीडब्ल्यू भी देखा गया है। जिससे यह संकेत मिलता है कि ईसा पूर्व 1000 से शुरू और ईसा पूर्व में ही द्वितीय सदी तक जो मृदभांड की परंपरा रही है। लगभग 800 साल के उस काल खंड में भी देवकुंड में मानव गतिविधियां होती थी। आसपास इसके कई गांव रहे होंगे। मालूम हो कि पाल काल आठवीं से 12वीं सदी तक विस्तारित रहा है। जबकि हर्षवर्धन का काल 590 से 647 ईस्वी तक रहा है। उन्होंने वर्ष 606 से 647 तक राजपाट संभाला है। बगल में पीरु और इस क्षेत्र से बाणभट्ट के जुड़ाव होने का संकेत भी यही बताते हैं कि लगभग 1400 साल पहले ही देवकुंड में विशाल मंदिर बनाया गया था।



मंदिर की दीवारें बताती है प्राचीनता 



हेरीटेज सोसाईटी के महानिदेशक डा. अनंताशुतोष द्विवेदी बताते हैं कि मंदिर छठी या सातवीं सदी में निर्मित है। इसकी स्थापत्य संरचना से यह स्पष्ट है। मंदिर की दीवारें जितनी मोटी हैं वह इस काल में ही निर्मित होते थे। यहां मिट्टी बर्तन के जो टुकड़े उन्होंने देखे थे उससे भी यह लगता है कि यहां ईसा पूर्व 1000 साल से द्वितीय सदी ईसा पूर्व के बीच मानव गतिविधियों रही हैं।



देवकुंड मंदिर के बगल से गुजरता था सोन



देवकुंड मंदिर सोन के किनारे स्थित था। यह बात छठी सातवीं सदी की है। महत्वपूर्ण है कि सोन अपना पाट परिवर्तन कई बार किया है। मध्य प्रदेश हिंदी ग्रंथ अकादमी द्वारा 1983 में प्रकाशित देव कुमार मिश्रा ने- सोन के पानी का रंग- में लिखा है कि अतीत में दाउदनगर के पास तराड़ गांव के निकट से सोन दक्षिण पूर्व को बहता था। तथा देवकुंड के बिल्कुल बगल से होता हुआ रामपुर चाय और केयाल के सटे आगे बढ़ता था। उन्होंने विवेचना करते हुए लिखा है- में समझता हूं कि केयाल से सोन उत्तर पूरब को लगातार बहते हुए सोनभद्र गांव के पास पुनपुन का वर्तमान पाट धर लेता था